Best Leo Tolstory Stories in hindi,top leo tolstory story in hindi,Best stories by Leo tolstoy in hindi,मूर्ख सुमन्त ~ लियो टोल्स्टोय की कहानियाँ ~ Leo Tolstoy Stories in Hindi
एक समय एक गांव में एक धनी किसान रहता था। उसके तीन पुत्र थे—विजय सिपाही, तारा वणिक, सुमन्त मूर्ख। गूंगीबहरी मनोरमा नाम की एक कुंवारी कन्या भी थी। विजय तो जाकर किसी राजा की सेना में भर्ती हो गया। तारा ने किसी परसिद्ध नगर में सौदागरी की कोठी खोल ली। मूर्ख समुन्त और मनोरमा मातापिता के पास रहकर खेती का काम करने लगे।
विजय ने सेना में ऊंची पदवी पराप्त करके एक इलाका मोल ले लिया और एक मालदार पुरुष की कन्या से विवाह कर लिया। उसकी आमदनी का कुछ ठिकाना न था, परन्तु फिर भी कुछ न बचता था।
विजय एक समय इलाके पर पहुंचकर किसानों से बटाई मांगने लगा। किसान बोले कि महाराज हमारे पास न बैल हैं, न हल, न बीज। बटाई कहां से दें? पहले यह सामगरी जमा कर दो, फिर आपको इलाके से बहुत अच्छी आमदनी होने लगेगी। यह सुनकर विजय अपने पिता के पास पहुंचा और बोला—पिताजी, इतना धनी होने पर भी आपने मेरी कुछ सहायता नहीं की। मैंने सेना में काम किया और राजा को परसन्न कर एक इलाका मोल लिया। उसके बन्धन के लिए धन की जरूरत है। मैं तीसरे भाग का हिस्सेदार हूं, इसलिए मेरा भाग मुझे दे दीजिए कि अपना इलाका ठीक करुं।
पिता—भला मैं पूछता हूं कि तुमने नौकरी पर रहते हुए कभी कुछ घन भी भेजा? सब काम सुमन्त करता है। मेरी समझ में तुम्हें तीसरा भाग देना सुमन्त और मनोरमा के साथ अन्याय करना है।
विजय—सुमन्त तो मूर्ख है। मनोरमा गूंगी और बहरी है। उन्हें धन का क्या काम है। वे धन से क्या लाभ उठा सकते हैं?
पिता—अच्छा, सुमन्त से पूछ लूं।
पिता के पूछने पर सुमंत ने परसन्नतापूर्वक यही कहा कि विजय को उसका तीसरा भाग दे देना चाहिए।
विजय तीसरा भाग लेकर राजा के पास चला गया।
तारा ने भी व्यापार में बहुत धन संचय करके एक धनी पुरुष की पुत्री से विवाह किया। परन्तु धन की लालसा फिर भी बनी रही। वह भी पिता के पास आकर तीसरा भाग मांगने लगा।
पिता—मैं तुम्हें एक कौड़ी भी देना नहीं चाहता। विचारो तो, तुमने सौदागरी की कोठी खोलकर इतना धन इकट्ठा किया, कभी पिता को भी पूछा? यहां जो कुछ है, सब सुमंत की कमाई का फल है। उसका पेट काटकर तुम्हें दे देना अनुचित है।
तारा—मूर्ख सुमन्त को धन लेकर करना ही क्या है? आपके विचार में सुमन्त जैसे मूर्ख से कोई भी पुरुष अपनी कन्या ब्याह देगा? कदापि नहीं! रही मनोरमा, वह गूंगी और बहरी है। मैं सुमन्त से पूछ लेता हूं कि वह क्या कहता है!
तारा के पूछने पर सुमन्त ने तीसरा भाग देना तुरन्त स्वीकार कर लिया और तारा भी अपना भाग लेकर चम्पत हुआ। सुमन्त के पास जो कुछ सामान बच रहा, उसी से खेती का काम करके मातापिता की सेवा करने लगा।
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यह कौतुक देखकर अधर्म बड़ा दुःखी हुआ कि भाइयों ने परीतिसहित धन बांट लिया। जूतीपैजार कुछ भी न हुई। तीन भूतों को बुलाकर कहने लगा—देखो विजय, तारा, सुमन्त तीन भाई हैं। धन बांटते समय उन्हें आपस में झगड़ा करना उचित था, परन्तु मूर्ख सुमन्त ने सब काम बिगाड़ डाला। उसी की मू़ता से तीनों भाई आनन्द से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। तुम जाओ और एकएक के पीछे पड़कर ऐसा उत्पात मचाओ कि सबके-सब आपस में लड़ मरें। देखना, बड़ी चतुराई से काम करना।
तीनों भूत—धमार्वतार! जो तीनों को आपस में लड़ालड़ाकर मार न डाला, तो हमारा नाम अधर्मराज के भूत ही नहीं।
अधर्म—वाहवाह, शाबास! जाओ, मगर जो बिना काम पूरा किए लौटे तो खाल खींच लूंगा। इतना समझ लो।
तीनों भूत चलकर एक झील के किनारे बैठ गए और यह निश्चय किया कि कौन कौन किसकिस भाई के पीछे लगे और साथ ही नियम बांध दिया कि जिस भूत का कार्य पहले समाप्त हो जाए, वह तुरन्त दूसरे भूतों की सहायता करे।
कुछ दिन पीछे वे तीनों फिर उसी झील पर जमा हुए और अपनीअपनी कथा कहने लगे।
पहला—भाई साहब, मेरा काम तो बन गया। विजय भागकर पिता की शरण लेने के सिवाय अब और कुछ नहीं कर सकता।
दूसरा—बताओ तो उसे कैसे फांसा?
पहला—मैंने विजय को इतना घमंडी बना दिया कि वह एक दिन राजा से कहने लगा कि महाराज, यदि आप मुझे सेनापति की पदवी पर नियत कर दें तो मैं आपको सारे जगत का चक्रवर्ती राजा बना दूं। राजा ने उसे तुरन्त सेनापति बनाकर आज्ञा दी कि लंका के राजा को पराजित कर दो। बस फिर क्या था, लगी युद्ध की तैयारियां होने। लड़ाई छिड़ने से एक रात पहले मैंने विजय का सारा बारूद गीला कर दिया। उधर लंका के राजा के लिए घास के अनगिनत सिपाही बना दिये। दोनों सेनाओं के सम्मुख होने पर विजय के सिपाहियों ने घास के बने हुए अनन्त योद्घाओं को देखा तो उनके छक्के छूट गए। विजय ने गोले फेंकने का हुक्म दिया। बारूद गीली हो ही चुकी थी, तोपें आग कहां से देतीं? फल यह हुआ कि विजय की सेना को भागना ही पड़ा। राजा ने क्रोध करके उसका बड़ा अपमान किया। उसका इलाका छिन गया। इस समय वह बन्दीखाने में कैद है। बस, केवल यह काम शेष रह गया, कि उसे बन्दीखाने से निकालकर उसको पिता के घर पहुंचा दूं। फिर छुट्टी है, जो चाहे उसकी सहायता के लिए तैयार हूं।
दूसरा—मेरा कार्य भी सिद्ध हो गया है। तुम्हारी सहायता की कोई आवश्यकता नहीं। तारा को पहले तो मोटा करके आलसी बनाया। फिर इतना लोभी बना दिया कि वह संसारभर का माल लेलेकर कोठरी भरने लगा। उसकी खरीद अभी तक जारी है। उसका सब धन खर्च हो गया और अब उधार रुपया लेकर माल ले रहा है। एक सप्ताह में उसका सब माल सत्यानाश कर दूंगा और तब उसे सिवाय पिता की शरण जाने के और कोई उपाय न रहेगा।
तीसरा—भाई, हमारा हाल तो बड़ा पतला है। पहले मैंने सुमन्त के पीने के पानी में पेट में दर्द उत्पन्न करने वाली बूटी मिलायी, फिर खेत में जाकर धरती को ऐसा कड़ा कर दिया कि उस पर हल न चल सके। मैं समझता था कि पीड़ा के कारण वह खेत बाहने न आएगा। परन्तु वह तो बड़ा ही मू़ है। आया और हल चलाने लगा। हायहाय करता जाता था, परन्तु हल हाथ से न छोड़ता था। मैंने हल तोड़ दिया, वह घर जाकर दूसरा ले आया। मैंने धरती में घुसकर हल की आनी पकड़ ली, उसने ऐसा धक्का मारा कि मेरे हाथ कटतेकटते बचे। उसने केवल एक टुकड़े के सिवाय बाकी सारा खेत बाह लिया है। यदि तुम मेरी सहायता न करोगे तो सारा खेल बिगड़ जाएगा; क्योंकि यदि वह इस परकार खेतों को बाहता और बोता रहा, तो उसके भाई भूखे नहीं मर सकते। फिर बैरभाव किस भांति उत्पन्न हो सकता है? सुखपूर्वक उनका पालनपोषण करता रहेगा।
पहला—कुछ चिंता नहीं। देखा जाएगा। घबराओ नहीं। कल अवश्य तुम्हारे पास आऊंगा।
3
सुमंत हल चला रहा था, अचानक पैर एक झाड़ी में फंस गया। उसे अचम्भा हुआ कि खेत में तो कोई झाड़ी न थी, यह कहां से आयी। बात यह थी कि भूत ने झाड़ी बनाकर सुमंत की टांग पकड़ ली थी।
सुमंत ने हाथ डालकर झाड़ी को जड़ से उखाड़ डाला, देखा तो उसमें काले रंग का एक भूत बैठा हुआ है।
सुमंत—(गला दबाकर) बोला, दबाऊं गला?
भूत—मुझे छोड़ दो। मुझसे जो कहोगे, वही करुंगा।
सुमंत—तुम क्या कर सकते हो?
भूत—सब कुछ।
सुमंत—मेरे पेट में दर्द हो रहा है, उसे अच्छा कर दो।
भूत—बहुत अच्छा।
भूत ने धरती में से तीन बूटियां लाकर एक बूटी सुमंत को खिला दी, दर्द बंद हो गया और दूसरी दो बूटियां सुमंत को देकर बोला—जिसको एक बूटी खिला दोगे, उसके सब रोग तत्काल दूर हो जायेंगे। अब मुझे जाने की आज्ञा दो। मैं फिर कभी न आऊंगा।
सुमंत—हां, जाओ, परमात्मा तुम्हारा भला करे।
परमात्मा का नाम सुनते ही भूत रसातल चला गया। केवल वहां एक छेद रह गया।
सुमंत ने दूसरी दो बूटियां पगड़ी में बांध लीं और घर चला आया, देखा कि विजय और उसकी स्त्री आये हुए हैं। बड़ा परसन्न हुआ।
विजय बोला—भाई सुमंत, जब तक मुझे नौकरी न मिले, तुम हम दोनों को यहां रख सकते हो?
सुमंत—क्यों नहीं, आपका घर है। आप आनन्द से रहिए।
भोजन करते समय विजय की सभ्य स्त्री पति से बोली कि सुमंत के शरीर से मुझे दुर्गन्ध आती है, इसे बाहर भेज दो।
विजय—सुमंत, मेरी स्त्री कहती है कि तुम्हारे शरीर से दुगरंध आती है। पास बैठा नहीं जाता। तुम बाहर जाकर भोजन कर लो।
सुमंत—बहुत अच्छा, तुम्हें कष्ट न हो।
4
दूसरे दिन विजय वाला भूत खेत में आकर सुमंत वाले भूत को खोजने लगा। कहीं पता नहीं मिला, खेत के एक कोने पर छेद दिखाई दिया।
भूत जान गया कि साथी काम आया और खेत जुत चुका। क्या हुआ, चरावर में चलकर इस मूर्ख को देखता हूं। सुमंत के चरावर में पहुंचकर उसने इतना पानी छोड़ा कि सारी घास उसमें डूब गई।
इतने में सुमंत वहां आकर हंसुवे से घास काटने लगा। हंसुवे का मुंह मुड़ गया, घास किसी तरह न कटती थी। सुमंत ने सोचा कि यहां वृथा समय गंवाने से क्या लाभ होगा, पहले हंसुवा तेज करना चाहिए। रहा काम, यह तो मेरा धर्म है। एक सप्ताह क्यों न लग जाए, मैं घास काटे बिना यहां से चला जाऊं मेरा नाम सुमंत नहीं।
सुमंत घर जाकर हंसुवा ठीक कर लाया। भूत ने हंसुवा को पकड़ने का साहस किया, परंतु पकड़ न सका, क्योंकि सुमंत लगातार घास काटे जाता था। जब केवल घास का एक छोटासा टुकड़ा शेष रह गया तो भूत भागकर उसमें जा छिपा।
सुमंत कब रुकने वाला था! वह वहां पहुंचकर घास काटने लगा। भूत वहां से भागा भागते समय उसकी पूंछ कट गई।
भूत ने विचारा कि चलो, जयी के खेतों में चलें, देखें जयी कैसे काटता है। वहां जाकर देखा तो जयी कटी पड़ी है।
भूत ने विचार किया कि यह मूर्ख बड़ा चांडाल है। दिन निकलने नहीं दिया। रातरात में सारी जयी काट डाली। यह दुष्ट तो रात को भी काम में लगा रहता है। अच्छा, खलिहान में चलकर इसका भूसा सड़ाता हूं।
भूत भागकर चरी में छिप गया। सुमंत गाड़ी लेकर चरी लादने के लिए खलिहान में पहुंचा। एकएक पूली उठाकर गाड़ी में रखने लगा कि एक पूला में से भूत निकल पड़ा।
सुमंत—अरे दुष्ट, तू फिर आया?
भूत—मैं दूसरा हूं, पहला मेरा भाई था।
सुमंत—कोई हो, अब जाने न पाओगे।
भूत—कृपा करके मुझे छोड़ दीजिए। आप जो आज्ञा दें, वही करने को तैयार हूं।
सुमंत—तुम क्या कर सकते हो?
भूत—मैं भूसे के सिपाही बना सकता हूं।
सुमंत—सिपाही क्या काम देते हैं?
भूत—तुम उनसे जो चाहो, सो काम करा सकते हो।
सुमंत—वे गाना गा सकते हैं?
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भूत—क्यों नहीं!
सुमंत—अच्छा, बनाओ।
भूत—तुम चरी के पूले लेकर यह मंत्र पॄो—‘हे पूले, मेरी आज्ञा से सिपाही बन जा’ और फिर पूले को धरती पर मारो, सिपाही बन जाएगा।
सुमंत ने वैसा ही किया, पूले सिपाही बनने लगे। यहां तक कि पूरी पलटन बन गई और मरू बाजा बजने लगा।
सुमंत—(हंसकर) वाह भाई, वाह! यह तो खूब तमाशा है, इसे देखकर बालक बहुत परसन्न होंगे।
भूत—आज्ञा है, अब जाऊं?
सुमंत—नहीं, अभी मुझे फिर पूले बना देने का मंत्र भी सिखा दो, नहीं तो ये हमारा सारा अनाज ही चट कर जायेंगे।
भूत बस, यह मंत्र पॄो—‘हे सिपाही, मेरे सेवक, मेरी आज्ञा से फिर पूले बन जाओ।’ तब यह सब फिर पूले बन जायेंगे।
सुमंत ने मंत्र पॄा, सबके-सब पूले बन गए।
भूत—अब जाऊं? आज्ञा है।
सुमंत—हां जाओ, भगवान तुम पर दया करे।
भगवान का नाम सुनते ही भूत धरती में समा गया। पहले की भांति एक छेद शेष रह गया।
सुमंत जब घर लौटा तो देखा कि स्त्री सहित मंझला भाई तारा आया हुआ है। वह सुमंत से बोला—भाई सुमंत, लेहनेदारों के डर से भागकर तुम्हारे पास आये हैं। जब तक कोई रोजगार न करें, यहां ठहर सकते हैं कि नहीं?
सुमंत—क्यों नहीं, घर किसका और मैं किसका? आप आनंद से रहिए।
भोजन परसे जाने पर तारा की स्त्री ने तारा से कहा कि मैं गंवार के पास बैठकर भोजन नहीं कर सकती।
तारा—भाई सुमंत, मेरी स्त्री तुमसे घिन करती है। बाहर जाकर भोजन कर लो।
सुमंत—अच्छी बात है। आपका चित्त परसन्न चाहिए।
5
दूसरे दिन तारा वाला भूत सुमंत को दुःख देने के वास्ते खेत में पहुंचकर साथियों का ढूंढने लगा, पर किसी का पता न चला। खोजतेखोजते एक छेद तो खेत के कोने में मिला, दूसरा खलिहान में। उसे मालूम हो गया कि दोनों के दोनों यमलोक जा पहुंचे। अब मुझी से इस मूर्ख की बनेगी। देखूं कहां बचकर जाता है।
अतएव वह सुमंत की खोज लगाने लगा। सुमंत उस समय मकान बनाने के वास्ते जंगल में वृक्ष काट रहा था। दोनों भाइयों के आ जाने से घर में आदमियों के लिए जगह न थी। भाई यह चाहते थे कि अलगअलग मकान में रहें, इसलिए मकान बनाना आवश्यक हो गया था।
भूत वृक्ष पर च़कर शाखाओं में बैठ, सुमंत के काम में विघ्न डालने लगा। सुमंतकब टलने वाला था, संध्या होतेहोते उसने कई वृक्ष काट डाले। अंत में उसने उस वृक्ष को भी काट दिया, जिस पर भूत च़ा बैठा था। टहनियां काटते समय भूत उसके हाथ में आ गया।
सुमंत—हैं! तुम फिर आ गए?
भूत—नहींनहीं, मैं तीसरा हूं। पहले दोनों मेरे भाई थे।
सुमंत—कुछ भी हो, अब मैं नहीं छोड़ने का।
भूत—तुम जो कुछ कहोगे, वही करुंगा। कृपा करके मुझे जान से न मारिए।
सुमंत—तुम क्या कर सकते हो?
भूत—मैं वृक्ष के पत्तों से सोना बना सकता हूं।
सुमंत—अच्छा, बनाओ।
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भूत ने वृक्ष के सूखे पत्ते लेकर हाथ से मले और मंत्र पॄकर सोना बना दिया। सुमंत ने मंत्र सीख लिया और सोना देखकर परसन्न हुआ।
भूत ने वृक्ष के सूखे पत्ते लेकर हाथ से मले और मंत्र पॄकर सोना बना दिया। सुमंत ने मंत्र सीख लिया और सोना देखकर परसन्न हुआ।
सुमंत—भाई भूत, इसका रंग तो बड़ा सुन्दर है, बालकों के खिलौने इसके अच्छे बन सकते हैं।
भूत—अब आज्ञा है, जाऊं?
सुमंत—जाओ, परमेश्वर तुम पर अनुगरह करें।
परमेश्वर का नाम सुनते ही यह भूत भी भूमि में समा गया, केवल छेद ही छेद बाकी रह गया।
6
घर बनाकर तीनों भाई सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। जन्माष्टमी के त्योहार पर सुमंत ने भाइयों को भोजन करने को नेवता भेजा। उन्होंने उत्तर दिया कि हम गवारों के साथ परीतिभोजन नहीं कर सकते।
सुमंत ने इस पर कुछ बुरा नहीं माना। गांव के स्त्रीपुरुष, बालक और बालिकाओं को एकत्र करके भोजन करने लगा।
भोजन करने के उपरांत सुमंत बोला—क्यों भाई मित्रो, एक तमाशा दिखलाऊं?
सब—हां, दिखालाइए।
सुमंत ने सूखे पत्ते लेकर सोने का एक टोकरा भर दिया और लोगों की ओर फेंकने लगा। किसान लोग सोने के टुकड़े लूटने लगे। आपस में इतना धक्कमधक्का हुआ कि एक बेचारी बुयि कुचल गई।
समंत ने सबको धिक्कार कर कहा—तुम लोगों ने बू़ी माता को क्यों कुचल दिया शांत हो जाओ तो और सोना दूं। यह कहकर टोकरी का सब सोना लुटा दिया। फिर सुमंत ने स्त्रियों से कहा कि कुछ गाओ। स्त्रियां गाने लगीं।
सुमंत—हूं, तुम्हें गाना नहीं आता।
स्त्रियां—हमें तो ऐसा ही आता है, और अच्छा सुनना हो तो किसी और को बुला लो।
सुमंत ने तुरंत ही भूसे के सिपाही बनाकर पलटन खड़ी कर दी, बैंड बजने लगा। गंवार लोगों को बड़ा ही अचम्भा हुआ। सिपाही बड़ी देर तक गाते रहे, तब सुमंत ने उनको फिर भूसा बना दिया और सब लोग अपनेअपने घर चले गए।
7
परातःकाल विजय ने यह चचार सुनी तो हांफताहांफता सुमंत के पास आया, बोला—भाई सुमंत, यह सिपाही तुमने किस रीति से बनाए थे?
सुमंत—क्यों? आपको क्या काम है?
विजय—काम की एक ही कही। सिपाहियों की सहायता से तो हम राज्य जीत सकते हैं।
सुमंत—यह बात है! तुमने पहले क्यों नहीं कहा? खलिहान में चलिए, वहां चलकर जितने कहो, उतने सिपाही बना देता हूं, परंतु शर्त यह है कि उन्हें तुरंत ही यहां से बाहर ले जाना, नहीं तो वे गांव का गांव चट कर जायेंगे।
अतएव खलिहान में जाकर उसने कई पलटनें बना दीं और पूछा—बस कि और?
विजय—(परसन्न होकर) बस बहुत है, तुमने बड़ा एहसान किया।
सुमंत—एसान की कौनसी बात है। अब के वर्ष भूसा बहुत हुआ है यदि कभी टोटा पड़ जाय तो फिर आ जाना, फिर सिपाही बना दूंगा।
अब विजय धरती पर पांव नहीं रखता था। सेना लेकर उसने तुरंत युद्ध करने के वास्ते परस्थान कर दिया।
विजय के जाते ही तारा भी आ पहुंचा और सुमंत से बोला—भाई साहब, मैंने सुना है कि तुम सोना बना लेते हो। हायहाय! यदि थोड़ासा सोना मुझे मिल जाए तो मैं सारे संसार का धन खींच लूं।
सुमंत—अच्छा, सोने में यह गुण है! तुमने पहले क्यों नहीं कहा? बतलाओ, कितना सोना बना दूं?
तारा—तीन टोकरे बना दो।
सुमंत ने तीन टोकरे सोना बना दिया।
तारा—आपने बड़ी दया की।
सुमंत—दया की कौन बात है, जंगल में पत्ते बहुत हैं। यदि कमी हो जाय तो फिर आ जाना, जितना सोना मांगोगे, उतना ही बना दूंगा।
सोना लेकर तारा व्यापार करने चल दिया।
विजय ने सेना की सहायता से एक बड़ा भारी राज्य विजय कर लिया। उधर तारा के धन का भी पारावार न रहा। एक दिन दोनों में मुलाकात हुई। बातें होने लगीं।
विजय—भाई तारा, मैंने तो अपना राज्य अलग बना लिया और अब चैन करता हूं, परंतु इन सिपाहियों का पेट कहां से भरुं? रुपये की कमी है, सदैव यही चिंता बनी रही है।
तारा—तो क्या आप समझते हैं कि मुझे चिन्ता नहीं है, मेरे धन की गिनती नहीं, पर उसकी रख वाली करने को सिपाही नहीं मिलते। बड़ी विपत्ति में पड़ा हूं।
विजय—चलिए, सुमंत मूर्ख के पास चलें। मैं तुम्हारे वास्ते थोड़े से सिपाही बनवा दूं और तुम मेरे लिए थोड़ासा सोना बनवा दो।
तारा—हां, ठीक है, चलिए।
दोनों भाई सुमंत के पास पहुंचे।
विजय—भाई सुमंत, मेरी सेना में कुछ कमी है, कुछ सिपाही और बना दो।
सुमंत—नहीं, अब मैं और सिपाही नहीं बनाता।
विजय—पर तुमने वचन जो दिया था, नहीं तो मैं आता ही क्यों? कारण क्या है? क्यों नहीं बनाते?
सुमंत—कारण यह कि तुम्हारे सिपाहियों ने एक मनुष्य को मार डाला। कल जब मैं अपना खेत जोत रहा था, तो पास से एक अरथी देखी। मैंने पूछा, कौन मर गया? एक स्त्री ने कहा कि विजय के सिपाहियों ने युद्ध में मेरे पति को मार डाला। मैं तो आज तक केवल यह समझता था कि सिपाही बैंड बजाया करते हैं, परन्तु वे तो मनुष्य की जान मारने लगे। ऐसे सिपाही बनाने से तो संसार का नाश हो जाएगा।
तारा—अच्छा, यदि सिपाही नहीं बनाते, तो मेरे लिए सोना तो थोड़ासा और बना दो। तुमने वचन दिया था कि कमी हो जाने पर फिर बना दूंगा।
सुमंत—हां, वचन तो दिया था, पर मैं अब सोना भी न बनाऊंगा।
तारा—क्यों?
सुमंत—इसलिए कि तुम्हारे सोने ने बसंत की लड़की से उसकी गाय छीन ली।
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तारा—यह कैसे?
सुमंत—बसंत की पुत्री के पास एक गाय थी। बालक उसका दूध पीते थे। कल वे बालक मेरे पास दूध मांगने आए। मैंने पूछा कि तुम्हारी गाय कहां गई, तो कहने लगे कि तारा का एक सेवक आकर तीन टुकड़े सोने के देकर हमारी गाय ले गया। मैं तो यह जानता था कि सोना, बनवाबनवाकर तुम बालकों को बहलाया करोगे, परंतु तुमने तो उनकी गाय ही छीन ली। बस, सोना अब नहीं बन सकता।
दोनों भाई निराश होकर लौट पड़े। राह में यह समझौता हुआ कि विजय तारा को कुछ सिपाही दे दे और तारा विजय को कुछ सोना। कुछ दिन बाद धन के बल से तारा ने भी एक राज्य मोल ले लिया और दोनों भाई राजा बनकर आनंद करने लगे।
8
सुमंत गूंगी बहन के सहित खेती का काम करते हुए अपने मातापिता की सेवा करने लगा। एक दिन उसकी कुतिया बीमार हो गई, उसने तत्काल पहले भूत की दी हुई बूटी उसे खिला दी। वह निरोग होकर खेलनेकूदने लगी। यह हाल देखकर मातापिता ने इसका ब्यौरा पूछा। सुमंत ने कहा कि मुझे एक भूत ने दो बूटियां दी थीं। वह सब परकार के रोगों को दूर कर सकती हैं। उनमें से एक बूटी मैंने कुतिया को खिला दी।
उसी समय दैवगति से वहां के राजा की कन्या बीमार हो गई। राजा ने यह डोंडी पिटवायी थी कि जो पुरुष मेरी कन्या को अच्छा कर देगा, उसके साथ उसका विवाह कर दिया जाएगा। मातापिता ने सुमंत से कहा कि यह तो बड़ा अच्छा अवसर है। तुम्हारे पास एक बूटी बची है। जाकर राजा की कन्या को अच्छा कर दो और उमर भर चैन करो।
सुमंत जाने पर राजी हो गया। बाहर आने पर देखा कि द्वार पर कंगाल बुयि खड़ी है।
बुयि—सुमंत, मैंने सुना है कि तुम रोगियों का रोग दूर कर सकते हो। मैं रोग के हाथों बहुत दिनों से कष्ट भोग रही हूं। पेट को रोटियां मिलती ही नहीं, दवा कहां से करुं? तुम मुझे कोई दवा दे दो तो बड़ा यश होगा।
सुमंत तो दया का भंडार था, बूटी निकालकर तुरंत बुयि को खिला दी। वह चंगी होकर उसे आशीष देती हुई घर को चली गई।
मातापिता यह हाल सुनकर बड़े दुःखी हुए और कहने लगे कि सुमंत, तुम बड़े मूर्ख हो। कहां राजकन्या और कहां यह कंगाल बुयि! भला इस बुयि को चंगा करने से तुम्हें क्या मिला?
सुमंत—मुझे राजकन्या के रोग दूर करने की भी चिन्ता है। वहां भी जाता हूं।
माता—बूटी तो है ही नहीं, जाकर क्या करोगे?
सुमंत—कुछ चिन्ता नहीं, देखो तो सही क्या होता है।
समदर्शी पुरुष देवरूप होता है। सुमंत के राजमहल पर पहुंचते ही राजकन्या निरोग हो गईं। राजा ने अति परसन्न होकर उसका विवाह सुमंत के साथ कर दिया।
इसके कुछ काल पीछे राजा का देहान्त हो गया। पुत्र न होने के कारण वहां का राज सुमंत को मिल गया।
अब तीनों भाई राजपदवी पर पहुंच गए।
9
विजय का परभाव सूर्य की भांति चमकने लगा। उसने भूसे के सिपाहियों से सचमुच के सिपाही बना दिए। राज्य भर में यह हुक्म जारी कर दिया कि दस घर पीछे एक मनुष्य सेना में भरती किया जाए और कवायदपरेड कराकर सेना को अस्त्रशस्त्र विद्या में ऐसा चतुर कर दिया, कि जब कोई शत्रु सामना करता, तो वह तुरंत उसका विध्वंस कर देता। सारे राजा उसके भय से कांपने लगे, वह अखंड राज करने लगा।
तारा बड़ा बुद्धिमान था। उसने धन संचय करने के निमित्त मनुष्यों, घोड़ों, गाड़ियों, जूतों, जुराबों, वस्त्रों तात्पर्य यह कि जहां तक हो सका, सब व्यावहारिक वस्तुओं पर कर बैठा दिया। धन रखने को लोहे की सलाखों वाले पक्के खजाने बना दिये और चौरीचकारी, लूटमार, धन सम्बन्धी झगड़े बन्द करने के निमित्त अनगिनत कानून जारी कर दिए। संसार में रुपया ही सबकुछ है। रुपये की भूख से सब लोग आकर उसकी सेवा करने लगे।
अब सुमंत मूर्ख की करतूत सुनिए। ससुर का क्रियाकर्म करके उसने राजसी रत्नजटित वस्त्रों को उतारकर, सन्दूक में बन्द कर अलग धर दिए। मोटेझोटे कपड़े पहन लिये और किसानों की भांति खेती का काम करने का विचार किया। बैठेबैठे उसका जी ऊबता था।
भोजन न पचता, बदन में चबीर ब़ने लगी, नींद और भूख दोनों जाती रही। उसने अपनी गूंगी बहन और मातापिता को अपने पास बुला लिया और ठीक पहले की भांति खेती का काम करना आरंभ कर दिया।
मंत्री—आप तो राजा हैं, आप यह क्या काम करते हैं!
सुमंत—तो क्या मैं भूखा मर जाऊं? मुझे तो काम के बिना भूख ही नहीं लगती। करुं तो क्या करुं?
दूसरा मंत्री—(सामने आकर) महाराज, राज्य का परबंध किस परकार किया जाए? नौकरों को तलब कहां से दें? रुपया तो एक नहीं।
सुमंत—यदि रुपया नहीं तो तलब मत दो।
मंत्री—तलब लिये बिना काम कौन करेगा?
सुमंत—काम कैसा, न करने दो। करने को खेतों में क्या काम थोड़ा है। खाद संभालना, समय पर खेती करना, यह सब काम ही हैं कि और कुछ?
इतने में एक मुकदमे वाले सामने आये।
किसान—महाराज, उसने मेरे रुपये चुरा लिये।
सुमंत—कोई बात नहीं, उसको रुपये की जरूरत होगी।
सब लोग जान गये कि सुमंत महामूर्ख है। एक दिन रानी बोली—‘पराणनाथ, सब लोग यही कहते हैं कि आप मूर्ख हैं।
सुमंत—तो इसमें हानि ही क्या है?
रानी ने विचारा कि धर्मशास्त्र की यही आज्ञा है कि स्त्री का परमेश्वर पति है। जिसमें वह परसन्न रहे, वही काम करना धर्म है। अतएव वह भी राजा सुमंत के साथ खेती का काम करने लगी।
यह दशा देखकर बुद्धिमान पुरुष सबके-सब अन्य देशों में चले गये। केवल मूर्ख ही मूर्ख यहां रह गए। इस राज्य में रुपया परचलित न था। राजा से लेकर रंक तक खेती का काम करते, आप खाते और दूसरों को खिलाकर परसन्न होते।
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इधर अधर्मराज बैठे देख रहे हैं कि तीनों भाइयों का सर्वनाश करके भूत अब आते हैं, अब आते हैं; परंतु वहां आता कौन? अधर्म को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह क्या बात है। अंत में सोचविचारकर स्वयं खोज लगाने के लिए चला।
सुमंत के पुराने गांव में जाने पर ूंढ़ने से तीन छेद मिले। अधर्म को मालूम हो गया कि तीनों भूत मारे गए। वह भाइयों की खोज में चला। जाकर देखा तो तीनों भाई राजा बने बैठे हैं। फिर क्या था, जलभुनकर राख ही तो हो गया। दांत पीसकर बोला—देखूं यह सब मेरे हाथ से बचकर कहां जाते हैं? वह एक सेनापति का वेश बदलकर पहले विजय के पास पहुंचा और हाथ जोड़कर विनय की—महाराज, मैंने सुना है कि आप महा शूरवीर हैं। मैं अस्त्रशस्त्र विद्या में अति निपुण हूं। इच्छा है कि आपकी सेवा करके अपना गुण परकट करुं।
विजय उसकी चितवनों से ताड़ गया कि आदमी चतुर और बुद्धिमान है, उसे झट सेनापति की पदवी पर नियुक्त कर दिया।
नवीन सेनापति सेना को ब़ाने का परबन्ध करने लगा। विजय से बोला—महाराज, मेरे ध्यान में राज्य में बहुत लोग ऐसे हैं जो कुछ नहीं करते। राज्य की स्थिरता सेना से ही होती है। इसलिए एक तो सब युवक पुरुषों को रंगरूट भरती करके सेना पहले से पांचगुनी कर देनी चाहिए, दूसरे नये नमूने की बन्दूकें और तोपें बनाने के वास्ते राजधानी में कारखाने खोलने चाहिए। मैं एक फायर में सौ गोली चलाने वाली बन्दूक और घोड़े, मकान, पुल इत्यादि नष्ट कर देने वाली तोपें बना सकता हूं।
विजय ने परसन्नापूर्वक झट सारी राजधानी में एक आज्ञापत्र जारी कर दिया कि सब लोग रंगरूट भरती किए जायं। नये नमूने की तोपें और बंदूकें बनाने के वास्ते जगहजगह कारखाने खोल दिए। युद्ध की समस्त सामगरी जमा होने पर पहले उसने पड़ोसी राजा को जीता, फिर मैसूर के राजा पर च़ाई का डांका बजा दिया।
पर सौभाग्य से मैसूर के राजा ने विजय का सारा वृत्तांत सुन रखा था। विजय ने तो पुरुषों को ही भरती किया था, उसने स्त्रियों को भी सेना में भरती कर लिया। नये से नये नमूने की बन्दूकें और तोपें बना डालीं, सेना विजय से चौगुनी कर दी और नवीन कल्पना यह की कि बम के ऐसे गोले बनाए जाएं जो आकाश से छोड़े जाएं और धरती पर फटकर शत्रु की सेना का नाश कर दें।
विजय ने समझा था कि पड़ोसी राजा की भांति छिन में मैसूर के राजा को जीतकर उसकी राज्य छीन लूंगा, परन्तु यहां रंगत ही कुछ और हुई। सेना अभी गोली की मार में भी नहीं पहुंची थी की शत्रु की सेना की स्त्रियों ने आकाश से बम के गोले बरसाने आरम्भ कर दिए विजय की सारी सेना काई की भांति फट गई। आधी वहीं काम आयी, आधी भयभीत होकर भाग गयी। विजय अकेला क्या कर सकता था? भागते ही बनी। मैसूर के राजा ने उसके राज्य पर अपना अधिकार कर लिया।
विजय का सर्वनाश करके अधर्म तारा के राज्य में पहुंचा और सौदागर का वेश धारण करके वहां एक कोठी खोल दी। जो पुरुष कोई माल बेचने आता, उसे चौगुनेपचगुने दाम पर ले लेता। शीघर ही वहां की परजा मालदार हो गई। तारा यह हाल देखकर बड़ा परसन्न हुआ और कहने लगा कि व्यापार बड़ी वस्तु है। इस सौदागर के आने से मेरा कोष धन से भर गया। किसी बात की कमी नहीं रही।
अब तारा ने एक महल बनाना शुरू किया। उसे विश्वास था कि रुपये के लालच से राज, मजदूर, मसाला सब कुछ सामगरी शीघर ही मिल जायेगी कोई कठिनाई न होगी। परन्तु राजा का महल बनाने के वास्ते कोई न आया। अधर्म सौदागर के पास रुपये की गिनती न थी। उसकी अपेक्षा राजा उससे अधिक मजूरी और दाम नहीं दे सकता। उसका महल न बन सका। तारा को साधारण मकान में ही रहना पड़ा।
इसके पीछे उसने एक बाग लगाना आरम्भ किया। उस सौदागर ने तालाब खुदवाना शुरू कर दिया। सब लोग रुपया अधिक होने के कारण सौदागर के वश में थे। राजा का काम कोई न करता था। बाग भी बीच में ही रह गया। शीतकाल आने पर तारा ने ऊनी वस्त्र आदि खरीदने का विचार किया। सारा संसार छान डाला। जहां पूछा, यही उत्तर मिला कि सौदागर ने कोई वस्त्र नहीं छोड़ा, सारे के सारे खरीदकर ले गया।
यहां तक कि रुपये के परभाव से अधर्म ने राजा के सब नौकर अपने पास खींच लिये। राजा भूखों मरने लगा। क्रुद्ध होकर उसने सौदागर को अपनी राजधानी से निकाल दिया। अधर्म ने सीमा पर जाकर डेरा जमाया। तारा को कुछ करतेधरते नहीं बनता था। उसे उपवास किए तीन दिन बीत चुके थे कि विजय आकर सम्मुख खड़ा हो गया।
विजय—भाई तारा, मैं तो मर चुका। मेरी सेना, राजपाट सब नष्ट हो गया। मैसूर के राजा ने मेरी राजधानी पर अपना अधिकार कर लिया, भागकर तुम्हारे पास आया हूं, मेरी कुछ सहायता कीजिए।
तारा—सहायता की एक ही कही। यहां आप अपनी जान पर आ बनी है। उपवास किए तीन दिन हो चुके हैं, खाने को अन्न तक तो मिलता नहीं, तुम्हारी सहायता किस परकार करुं?
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Bahut Badhiya Aur Achchi Story.
जवाब देंहटाएंrochak kahani hai. lekin aage kya hota hai.
जवाब देंहटाएंThanks Nisheeth Ranjan for this great post. Its super helpful for the noobs like me :)
जवाब देंहटाएंkahani puri nahin hai
जवाब देंहटाएंKAHANI KAHNE KO TO ADHURI HAI PAR SUCH KAHU TO EKDUM PURI HAI..bs smjhne ki bat hai
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी कहानी है।
जवाब देंहटाएंI like this