भाषा वैसे तो संवाद का माध्यम मात्र है लेकिन हम चीज़ो को मल्टीपरपज बनाने में यकीन रखते है इसलिए हमारे देश में भाषा, संवाद के साथ साथ वाद -विवाद और स्टेटस सिंबल का भी माध्यम बन चुकी है।
भाषा वैसे तो संवाद का माध्यम मात्र है लेकिन हम
चीज़ो को मल्टीपरपज बनाने में यकीन रखते है
इसलिए हमारे देश में भाषा, संवाद के साथ साथ वाद -विवाद और स्टेटस सिंबल का भी
माध्यम बन चुकी है। हमें बचपन में बताया गया की हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाए आपस में बहने है लेकिन सयाने होने पर, इनका
झगड़ा
देखकर
हमें पता चला की इनका रिश्ता आपस में बहन का नहीं है बल्कि देवरानी -जेठानी सा है। दाल इतनी मँहगी होने के बावजूद हम
अभी भी घर की
मुर्र्गी को दाल बराबर ही मानते है
इसलिए
भले ही इंग्लिश अच्छे से ना
आती हो
लेकिन हिंदी बोलने और
लिखने में हमें शर्म ज़रूर आती है। निर्बल का बल भले ही राम को
माना जाता है लेकिन “स्टेटस सिंबल” का बल इंग्लिश को ही मनवाया गया है। इंग्लिश को जिस तरह से स्टेटस सिंबल से जोड़ा गया है उसे देखकर लगता है कि
इसके लिए ज़रूर एम
सील और फेवीक्विक के सयुंक्त
उद्यम द्वारा उत्पादित माल का इस्तेमाल किया गया होगा । इंग्लिश और स्टेटस सिंबल का जो ये “मेल-जोल” है उसमे बहुत “झोल” है लेकिन फिर भी ये
आपस में इतने मिले हुए है कि
इन्हे अलग करना उतना ही मुश्किल है
जितना की राहुल गाँधी में नेतृत्व क्षमता ढूँढना ।
भले ही आपने अभी तक लाइफ में कुछ ना उखाड़ा हो लेकिन इंग्लिश बोल और लिख सकने की कल्पना मात्र से आदमी अपने आप अपनी जड़ो से उखड़ने लगता है क्योंकि इंग्लिश आने के
बाद
कपितय सामाजिक कारणों से इंसान का ज़मीन से दो
इंच ऊपर चलना ज़रूरी माना जाता हैं। डॉन का इंतजार तो भले ही 11 मुल्कों की पुलिस करती हो लेकिन एक “सोफिस्टिकेटेड- समाज” में बेइज़्ज़ती, हमेशा
इंग्लिश ना जानने वालो का इंतज़ार करती हैं।
हिंदी कहने के लिए (बोलने के लिए नहीं ) भले ही
हमारी राजभाषा हो लेकिन उसकी हालत हमने राष्ट्रीय खेल हॉकी जैसी करने में कोई कसर बाकि नहीं रखी है। हम स्वाभिमानी और आत्म निर्भर लोग है इसलिए हमें मंजूर नहीं कि हमारे होते हुए कोई बाहरी व्यक्ति या शक्ति
हमारी राष्ट्रीय गौरव से जुड़ी चीज़ो को
नुकसान पहुँचाए। मतलब जिन चीज़ो पर राष्ट्रीय होने का तमगा लग जाता है उनकी हालत हम ऐसी
कर देते हैं की
उन्हें खुद अपने राष्ट्रीय होने पर शर्म आने लगे। हम अहिंसा के अनुयायी है
इसीलिए किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए हिंसक नहीं होते, बस केवल उसे अपनी नज़रो
में
गिरा देते है। हम
समता और सदभाव के
वाहक है , राष्ट्र की सीमाओं पर घुसपैठ रोकना, अतिथी
देवो भव: की हमारी कालजयी अवधारणा के खिलाफ हैं इसलिए “यूनिफोर्मिटी”
बनाए रखने के लिए हमने अपनी राष्ट्रीय भाषा में भी दूसरी भाषा के शब्दों की
घुसपैठ
को बढ़ावा दिया है ताकि ये संदेश दिया जा सके की
हम अपनी नीतियों को
कन्सिसटेंसी से लागू करते है । “यूनिफार्म सिविल कोड” का विरोध करने वाले लोग इसी “यूनिफोर्मिटी”
का हवाला देते हुए तर्क
देते है की हम
तो पहले से ही “यूनिफार्म सिविल कोड” का पालन कर रहे है।
तमाम काबिलियत के बावजूद हिंदी मीडियम वाले और इंग्लिश ना
बोल पाने वालो को
हेय दृष्टि से देखा जाता हैं जो HD से भी ज़्यादा क्लियरिटी वाली होती है। बिना इंग्लिश जाने हिंदी मीडियम वालो की सारी
योग्यताए
ऊंट के मुँह के
जीरे के समान होती हैं लेकिन इंग्लिश का ज्ञान मिलते ही वही सारी योग्यताए “जलजीरे” जैसी राहत देती हैं। आजकल हिंदी मीडियम के
छात्रों को इंग्लिश की
जानकारी अपनी “बुक” से कम और “फेसबुक” से ज़्यादा मिलती है
जहाँ वो अपने फ्रेंडस की फोटो पर
दूसरों के कमेंट्स देख- देख कर “नाईस पिक” तो लिखना सीख ही जाते है हालांकि उसका मतलब उन्हें तब
भी पता नहीं होता है। बुक्स से
दूर रहकर भी ये
स्टूडेंट्स फेसबुक पर “गुड मॉर्निंग” , “गुड आफ्टरनून”, “गुड इवनिंग” और “गुड नाईट” लिखना सीख जाते हैं और चूँकि फेसबुक पर कॉपी -पेस्ट की सुविधा भी
होती है इसलिए “स्पेलिंग मिस्टेक” जैसी कोई दुर्घटना होने की संभावना भी कम ही
रहती हैं। लेकिन समस्या तब आती हैं जब चैट करनी हो या किसी के कमेंट का जवाब देना होता है , क्योंकि उस समय बड़ा कन्फ्यूजन हो जाता हैं कि किसी के “हैप्पी बर्थडे” या “आई लव
यू”
का जवाब “सेम टू यू” से देना है या
फिर
“थैंक यू” से, और उसी समय किसी भी संभावित बेइज़्ज़ती के खतरे को भाँप लेते हुए हिंदी मीडियम के स्टूडेंट्स लोग आउट करके पतली गली से
निकल लेते है ताकि सामने वाला भी
उन्ही की तरह भ्रम में जीये. हिंदी मीडियम वाले भले ही “फॉरवर्ड” ना माने जाते हो लेकिन तकनीकी विकास की मदद से कोई भी
इंग्लिश वाला मैसेज आगे “फॉरवर्ड”
करके
“सोफिस्टिकेटेड-
समाज”
के निर्माण में अपना योगदान तो दे
ही रहे है।
स्कूल कॉलेज तक तो
हिंदी मीडियम वालो का
काम ठीक वैसे ही
चल जाता हैं जैसे ख़राब तकनीक वाले बल्लेबाज़ का काम भारतीय पिचों पर
चलता हैं लेकिन असली समस्या तब शुरू होती है जब
उच्च शिक्षा के लिए इन्हे इंग्लिश से दो-दो हाथ करने के
लिए चार पैर वाले पशु की तरह मेहनत करनी पड़ती हैं। मतलब देश की व्यवस्था ऐसी हैं की शिशु अवस्था में चुनी हुई हिंदी आपको व्यस्क होने पर पशुता की तरफ धकेल देती है। हिंदी मीडियम वाले किसी छात्र को जब
पता
लगता हैं की कोई कोर्स केवल इंग्लिश में
ही
कर पाना संभव हैं तो उसे इंग्लिश लैंग्वेज चुनौती और हिंदी भाषा पनौती लगने लगती हैं। अगर कोई गलती से या उत्साह से , ये
पूछ
भी ले की हिंदी राजभाषा वाले देश में इंग्लिश की अनिवार्यता क्यों रखी जाती हैं तो
उसका मुँह, मेन्टोस देकर, “दुबारा मत पूछना” स्टाइल में बंद कर दिया जाता हैं।
इंग्लिश ना आने के कारण कुछ लोग हीन भावना के शिकार हो जाते हैं और कुछ लोग 7 दिन में इंग्लिश सीखे जैसे कोर्सेज के। कुछ लोग अपनी कमजोरी को अपना हथियार बना लेते है और ऐसी इंग्लिश बोलने और
लिखने लगते हैं मानो अंग्रेज़ो से 200 साल की
गुलामी का बदला उनकी भाषा से सूद समेत लेंगे। बड़े बुजुर्ग कह कर
गए है , “जहाँ इज़्ज़त ना हो वहाँ इंसान को नहीं जाना चाहिए” , इसलिए हिंदी मीडियम वाले हॉलीवुड की इंग्लिश फिल्में देखने नहीं जाते है और
वैसे भी “सयाने लोगो” ने सही कहाँ है की, “अपनी
सुरक्षा इंसान को स्वयं करनी चाहिए” और इसके लिए , क्रिकेट में ऑफ स्टंप से बाहर जाती गेंदों से और जीवन में औकात से
बाहर जाती चीज़ो से
छेड़खानी नहीं करनी चाहिए।
ऐसा नहीं है की
हिंदी की दशा और
दिशा सुधारने के लिए कोई कदम नहीं उठाये जा रहे (हालांकि कई भाषायी विद्वानों का मानना है
की अब समय आ गया है की हिंदी की दशा सुधारने के लिए कदम के साथ साथ “हाथ” भी उठाया जाए। ). ये हमारी दूरदर्शिता का ही परिणाम है की
हम हिंदी की स्थिती सुधारने के लिए बरसो पहले से ही
हिंदी दिवस से हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा मनाते आ रहे हैं । चिंता, चिता समान है
इसलिए हिंदी सप्ताह और
पखवाड़े के दौरान जानकारों द्वारा हिंदी की
दशा पर व्यक्त की
गई चिंता को बैठकों के दौरान बिस्कुट और भुजिया के पैकेट्स पर
फूंके गए हज़ारो रुपये की अग्नि में स्वाहा कर दिया जाता है। लेकिन फिर भी विद्वानों द्वारा इतनी अधिक मात्रा में चिंता व्यक्त कर
दी जाती है की की इसके “रेडियो एक्टिव” प्रभाव से बचने के लिए और
चिंता
को ओवरफ्लो होने से
बचाने के लिए उसे हिंदी सप्ताह /पखवाड़े के “मिनिट्स”
बनाकर फाइलों में दबाकर अलमारियों में रख दिया जाता हैं और फिर अगले साल तक हिंदी चिंतामुक्त होजाती है।
बहुत बहुत धन्यवाद् हर्षवर्धन !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर आलेख ।
जवाब देंहटाएंthank you sir for sharing this wonderful article...........
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसारगर्भित
जवाब देंहटाएंasi hi jude rahiye
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