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ख़ुद से चलकर नहीं ये तर्ज़—ए—सुखन आया है,
पाँव दाबे हैं बुज़र्गों के तो फ़न आया है।
हमें बुज़ुर्गों की शफ़क़त कभी न मिल पाई,
नतीजा यह है कि हम लोफ़रों के बेच रहे।
हमीं गिरती हुई दीवार को थामे रहे वरना,
सलीके से बुज़ुर्गों की निशानी कौन रखता है।
रविश बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में,
ज़रूरतन भी ‘सख़ी’ की तरफ़ नहीं देखा।
सड़क से जब गुज़रते हैं तो बच्चे पेड़ गिनते हैं,
बड़े बूढ़े भी गिनते हैं वो सूखे पेड़ गिनते हैं।
हवेलियों की छतें गिर गईं मगर अब तक,
मेरे बुज़ुर्गों का नश्शा नहीं उतरता है।
बिलख रहे हैं ज़मीनों पे भूख से बच्चे,
मेरे बुज़ुर्गों की दौलत खण्डर के नीचे है।
मेरे बुज़ुर्गों को इसकी ख़बर नहीं शायद,
पनप नहीं सका जो पेड़ बरगदों में रहा।
इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती,
आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती।
मेरे बुज़ुर्गों का साया था जब तलक मुझ पर,
मैं अपनी उम्र से छोटा दिखाई देता था।
बड़े—बूढ़े कुएँ में नेकियाँ क्यों फेंक आते हैं,
कुएँ में छुप के आख़िर क्यों ये नेकी बैठ जाती है।
मुझे इतना सताया है मरे अपने अज़ीज़ों ने,
कि अब जंगल भला लगता है घर अच्छा नहीं लगता।
हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है,
हम अब तन्हा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है।
कच्चे समर शजर से अलग कर दि्ये गये,
हम कमसिनी में घर से अलग कर दि्ये गये।
गौतम की तरह घर से निकल कर नहीं जाते,
हम रात में छुप कर कहीं बाहर नहीं जाते।
हमारे साथ चल कर देख लें ये भी चमन वाले,
यहाँ अब कोयला चुनते हैं फूलों —से बदन वाले।
इतना रोये थे लिपट कर दर—ओ—दीवार से हम,
शहर में आके बहुत दिन रहे बीमार —से हम।
मैं अपने बच्चों से आँखें मिला नहीं सकता,
मैं ख़ाली जेब लिए अपने घर न जाऊँगा।
हम एक तितली की ख़ातिर भटकते फिरते थे,
कभी न आयेंगे वो दिन शरारतों वाले।
मुझे सँभालने वाला कहाँ से आयेगा,
मैं गिर रहा हूँ पुरानी इमारतों की तरह।
पैरों को मेरे दीदा—ए—तर बाँधे हुए है,
ज़ंजीर की सूरत मुझे घर बाँधे हुए है।
दिल ऐसा कि सीधे किए जूते भी बड़ों के,
ज़िद इतनी कि खुद ताज उठा कर नहीं पहना।
चमक ऐसे नहीं आती है ख़ुद्दारी के चेहरे पर,
अना को हमने दो—दो वक़्त का फ़ाक़ा कराया है।
ज़रा—सी बात पे आँखें बरसने लगती थीं,
कहाँ चले गये मौसम वो चाहतों वाले।
मैं इस ख़याल से जाता नहीं हूँ गाँव कभी,
वहाँ के लोगों ने देखा है बचपना मेरा।
हम न दिल्ली थे न मज़दूर की बेटी लेकिन,
क़ाफ़िले जो भी इधर आये हमें लूट गये।
अब मुझे अपने हरीफ़ों से ज़रा भी डर नहीं,
मेरे कपड़े भाइयों के जिस्म पर आने लगे।
तन्हा मुझे कभी न समझना मेरे हरीफ़,
इक भाई मर चुका है मगर एक घर में है।
मैदान से अब लौट के जाना भी है दुश्वार,
किस मोड़ पे दुश्मन से क़राबत निकल गई।
मुक़द्दर में लिखा कर लाये हैं हम दर—ब—दर फिरना,
परिंदे कोई मौसम हो परेशानी में रहते हैं।
मैं पटरियों की तरह ज़मीं पर पड़ा रहा,
सीने से ग़म गुज़रते रहे रेल की तरह।
मैं हूँ मिट्टी तो मुझे कूज़ागरों तक पहुँचा,
मैं खिलौना हूँ तो बच्चों के हवाले कर दे।
हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है,
कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है।
शायद हमारे पाँव में तिल है कि आज तक,
घर में कभी सुकून से दो दिन नहीं रहे।
मैं वसीयत कर सका न कोई वादा ले सका,
मैंने सोचा भी नहीं था हादसा हो जायेगा।
हम बहुत थक हार के लौटे थे लेकिन जाने क्यों,
रेंगती, बढ़ती, सरकती च्यूँटियाँ अच्छी लगीं।
मुद्दतों बाद कोई श्ख्ह़्स है आने वाला,
ऐ मेरे आँसुओ! तुम दीदा—ए—तर में रहना।
तक़ल्लुफ़ात ने ज़ख़्मों को कर दिया नासूर,
कभी मुझे कभी ताख़ीर चारागर को हुई।
अपने बिकने का बहुत दुख है हमें भी लेकिन,
मुस्कुराते हुए मिलते हैं ख़रीदार से हम।
हमें दिन तारीख़ तो याद नहीं बस इससे अंदाज़ा कर लो,
हम उससे मौसम में बिछ्ड़े थे जब गाँव में झूला पड़ता है।
मैं इक फ़क़ीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ,
किसी से भी मेरी क़ीमत अदा नहीं होती।
हम तो इक अख़बार से काटी हुई तस्वीर हैं,
जिसको काग़ज़ चुनने वाले कल उठा ले जाएँगे।
अना ने मेरे बच्चों की हँसी भी छीन ली मुझसे,
यहाँ जाने नहीं देती वहाँ जाने नहीं देती।
जाने अब कितना सफ़र बाक़ी बचा है उम्र का,
ज़िन्दगी उबले हुए खाने तलक तो आ गई।
हमें बच्चों का मुस्तक़बिल लिए फिरता है सड़कों पर,
नहीं तो गर्मियों में कब कोई घर से निकलता है।
सोने के ख़रीदार न ढूँढो कि यहाँ पर,
इक उम्र हुई लोगों ने पीतल नहीं देखा।
मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी,
जला कर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ।
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जाने अब कितना सफ़र बाक़ी बचा है उम्र का,
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी उबले हुए खाने तलक तो आ गई।