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हम सायादार पेड़ ज़माने के काम आये
जब सूखने लगे तो जलाने के काम आये
कोयल बोले या गौरेय्या अच्छा लगता है
अपने गाँव में सब कुछ भैया अच्छा लगता है
ख़ानदानी विरासत के नीलाम पर आप अपने को तैयार करते हुए
उस हवेली के सारे मकीं रो दिये उस हवेली को बाज़ार करते हुए
उड़ने से परिंदे को शजर रोक रहा है
घर वाले तो ख़ामोश हैं घर रोक रहा है
वो चाहती है कि आँगन में मौत हो मेरी
कहाँ की मिट्टी है मिझको कहाँ बुलाती है
नुमाइश पर बदन की यूँ कोई तैयार क्यों होता
अगर सब घर हो जाते तो ये बाज़ार क्यों होता
कच्चा समझ के बेच न देना मकान को
शायद कभी ये सर को छुपाने के काम आये
अँधेरी रात में अक्सर सुनहरी मिशअलें लेकर
परोंदों की मुसीबत का पता जुगनू लगाते हैं
तूने सारी बाज़ियाँ जीती हैं मुझपे बैठ कर
अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ अस्तबल भी चाहिए
मोहाजिरो! यही तारीख़ है मकानों की
बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा
तुम्हारी आँखों की तौहीन है ज़रा सोचो
तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है
किसी दुख का किसी चेहरे से अंदाज़ा नहीं होता
शजर तो देखने में सब हरे मालूम होते हैं
ज़रूरत से अना का भारी पत्थर टूट जाता है
मगर फिर आदमी भी अंदर—अंदर टूट जाता है
मोहब्बत एक ऐसा खेल है जिसमें मेरे भाई
हमेशा जीतने वाले परेशानी में रहते हैं
फिर कबूतर की वफ़ादारी पे शल मत करना
वह तो घर को इसी मीनार से पहचानता है
अना की मोहनी सूरत बिगाड़ देती है
बड़े—बड़ों को ज़रूरत बिगाड़ देती है
बनाकर घौंसला रहता था इक जोड़ा कबूतर का
अगर आँधी नहीं आती तो ये मीनार बच जाता
उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं
क़द में छोटे हों मगर लोग बड़े रहते हैं
प्यास की शिद्दत से मुँह खोले परिंदा गिर पड़ा
सीढ़ियों पर हाँफ़ते अख़बार वाले की तरह
वो चिड़ियाँ थीं दुआएँ पढ़ के जो मुझको जगाती थीं
मैं अक्सर सोचता था ये तिलावत कौन करता है
परिंदे चोंच में तिनके दबाते जाते हैं
मैं सोचता हूँ कि अब घर बसा किया जाये
ऐ मेरे भाई मेरे ख़ून का बदला ले ले
हाथ में रोज़ ये तलवार नहीं आयेगी
नये कमरों में ये चीज़ें पुरानी कौन रखता है
परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है
जिसको बच्चों में पहुँचने की बहुत उजलत हो
उससे कहिये न कभी कार चलाने के लिए
सो जाते हैं फुट्पाथ पे अखबार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोलॊ नहीं खाते
पेट की ख़ातिर फुटपाथों पे बेच रहा हूँ तस्वीरें
मैं क्या जानूँ रोज़ा है या मेरा रोज़ा टूट गया
जब उससे गुफ़्तगू कर ली तो फिर शजरा नहीं पूछा
हुनर बख़ियागिरी का एक तुरपाई में खुलता है
घर की दीवार पे कौवे नहीं अच्छे लगते
मुफ़लिसी में ये तमाशे नहीं अच्छे लगते
मुफ़लिसी ने सारे आँगन में अँधेरा कर दिया
भाई ख़ाली हाथ लौटे और बहनें बुझ गईं
अमीरी रेशम—ओ—कमख़्वाब में नंगी नज़र आई
ग़रीबी शान से इक टाट के पर्दे में रहती है
इसी गली में वो भूका किसान रहता है
ये वो ज़मीं है जहाँ आसमान रहता है
दहलीज़ पे सर खोले खड़ी होग ज़रूरत
अब ऐसे घर में जाना मुनासिब नहीं होगा
ईद के ख़ौफ़ ने रोज़ों का मज़ा छीन लिया
मुफ़लिसी में ये महीना भी बुरा लगता है
अपने घर में सर झुकाये इस लिए आया हूँ मैं
इतनी मज़दूरी तो बच्चे की दुआ खा जायेगी
अल्लाह ग़रीबों का मददगार है ‘राना’!
हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते
बोझ उठाना शौक़ कहाँ है मजबूरी का सौदा है
रहते—रहते स्टेशन पर लोग कुली हो जाते हैं
घरों में यूँ सयानी बेटियाँ बेचैन रहती हैं
कि जैसे साहिलों पर कश्तियाँ बेचैन रहती हैं
ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती जुलती है
कहीं भी शाख़े—गुल देखे तो झूला डाल देती है
रो रहे थे सब तो मैं भी फूट कर रोने लगा
वरना मुझको बेटियों की रुख़सती अच्छी लगी
बड़ी होने को हैं ये मूरतें आँगन में मिट्टी की
बहुत से काम बाक़ी हैं सँभाला ले लिया जाये
तो फिर जाकर कहीँ माँ_बाप को कुछ चैन पड़ता है
कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कुराती है
ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया
उड़ गईं आँगन से चिड़ियाँ घर अकेला हो गया
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बिल्कुल सही जो मेहनत करते हैं फिर चाहे वो शारीरिक हो या मानसिक उन्हें कभी भी नींद की गोली कहानी नहीं पड़ती.
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