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Lord Shiva Story In Hindi ~ एक अलौकिक प्रेमकथा - सती से पार्वती तक ~ भाग १
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माता पार्वती
मृत्यु पूर्व सती जी ने भगवान हरि से यह वर माँगा था कि मेरा प्रत्येक जन्म में मेरा अनुराग शिव जी के चरणों में रहे। इसी कारण से उन्होंने हिमवान के घर जाकर पार्वती जी का शरीर पाकर पुनः जन्म लिया। हिमाचल में पार्वती जी के जन्म होने पर समस्त सिद्धियाँ एवं सम्पत्तियाँ वहाँ छा गईं, मुनियों ने जहाँ तहाँ आश्रम बना लिये और मणियों की खानें प्रकट हो गईं।
दक्ष के बाद सती ने हिमालय के राजा
हिमवान और रानी मैनावती के यहां जन्म लिया। मैनावती और हिमवान को कोई कन्या नहीं
थी तो उन्होंने आदिशक्ति की प्रार्थना की। आदिशक्ति माता सती ने उन्हें उनके यहां
कन्या के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। दोनों ने उस कन्या का नाम रखा पार्वती।
पार्वती अर्थात पर्वतों की रानी। इन्हीं को गिरिजा, शैलपुत्री और पहाड़ों वाली रानी कहा जाता है।
पर्वतराज हिमालय के गृह में ‘देवी आदि शक्ति’ प्रकृति ने पुनः जन्म
धारण किया, छठे दिन षष्ठी पूजन कर, दसवें दिन उनका नाम ‘पार्वती’ रखा गया। इस प्रकार
त्रि-जगन्माता, परा प्रकृति ने हिमालय-राज की पत्नी मैना के गर्भ से जन्म धारण
कर, उनके गृह में रहने लगी। बाल्य लीलाएं करते हुए, पार्वती, हिमालय-राज के गृह में बड़ी होने लगी, उनका मुखमंडल बड़ा ही मनोरम था, जिसे देखकर हिमालयराज तथा मैना मुग्ध होते थे।
देवर्षि नारद को जब ज्ञात हुआ कि देवी आदि शक्ति प्रकृति ने हिमालय के गृह में जन्म धारण
किया हैं, वे उनके दर्शनों हेतु हिमवान के गृह में गए। हिमालय-राज ने उनका नाना प्रकार
से आदर सत्कार किया, तत्पश्चात सुखपूर्वक
बैठाकर उन्होंने पार्वती के भविष्य के बारे में पूछा। नारद जी ने उन्हें कहा “आपके पुत्री के हाथ में उत्तम लक्षण विद्यमान हैं, केवल एक रेखा ही विलक्षण हैं। उसका फल यह रहेगा- इसे
ऐसा पति प्राप्त होगा जो महान योगी, नंग-धडंग रहने वाला
तथा निष्काम होगा। न ही उसके माँ-बाप का कोई अता-पता होगा और न ही उसे मान-सम्मान
का कोई ख्याल रहेगा एवं वह सर्वदा ही अमंगल वेश धारण करेगा।” देवर्षि नारद के इस प्रकार वचनों को सुनकर मैना-हिमालय दोनों बहुत दुखित हुए, परन्तु पार्वती यह सुनकर मन ही मन बहुत हर्ष से खिल उठीं।
हिमवान ने नारद जी से कहा, “आपके भविष्य वाणी से मुझे बहुत दुःख हुआ
हैं, ऐसा कोई उपाय बताएं जिससे मैं अपनी पुत्री को इस
विषाद योग से बचा सकूँ।” नारद जी ने कहा “मैंने जैसे वर के बारे
में बताया हैं, वैसे केवल भगवान शिव ही हैं, वे सर्व-समर्थ होते हुए भी लीला हेतु अनेक रूप धारण
करते हैं। तुम अपनी कन्या का दान भगवान शिव को कर देना; वे सबके ईश्वर, सेव्य, निर्विकार, सामर्थ्य-शाली और अविनाशी हैं। पार्वती, भगवान शिव की शिवा होगी एवं
सर्वदा उनके अनुकूल होगी, वे दोनों ‘शिव-पार्वती’ अर्धनारीश्वर रूप में विख्यात
होंगे। आपकी यह पुत्री तपस्या के प्रभाव से सर्वेश्वर शिव को संतुष्ट कर उनके शरीर
के आधे भाग को अपने अधिकार में कर लेंगी। भगवान शिव इनके अलावा किसी और से विवाह नहीं करेंगे, इन्हें देवताओं के कार्य पूर्ण करने हैं।" तुम अपनी कन्या का दान भगवान शिव के अतिरिक्त किसी और से करने की सोचना भी नहीं तथा यह
सभी तथ्य गुप्त हैं इन्हें कभी किसी से नहीं कहियेगा।
इस पर हिमालय-राज ने नारद जी से कहा! “भगवान शिव तो महायोगी हैं तथा संसार से पूर्ण रूप से विरक्त हो
चुके हैं। वे जैसा तप कर रहें हैं वह देवता भी नहीं कर सकते हैं तथा वे संसार के
प्रति निरासक्त हो चुके हैं, उनके एकाग्र मन को कोई
भी विचलित नहीं कर सकता हैं। इस अवस्था में वे कैसे मेरी पुत्री को अपनी पत्नी
बनायेंगे? मैंने किन्नरों की मुख से निरंतर ऐसा
सुना हैं कि भगवान शिव ने पहले यह प्रतिज्ञा
की थीं कि वह सती के अतिरिक्त किसी और से विवाह नहीं करेंगे।” इसपर नारद जी के कहा, “पूर्व काल में आपकी यह
कन्या ही ‘सती’ थीं, पितृ-गृह में अनादर पाने के कारण
इन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया था। असुर-पति तारकासुर ने देवताओं को जीतकर, अपने बल तथा अहंकार से समस्त देवताओं को अपने आधीन कर
लिया हैं। वह तीनों लोकों का स्वामी हैं, ब्रह्मा जी के वर अनुसार उनकी मृत्यु तो निश्चित हैं, परन्तु, भगवान शिव के पुत्र के हाथों से उसकी मृत्यु होगी। समस्त देवता भगवान शिव से निवेदन करेंगे ही, परन्तु वास्तव में आपकी यह पुत्री ही उन्हें मुग्ध कर
लेंगी। आपके यहाँ जन्म लेनी वाली यह महामाया सम्पूर्ण जगत को मुग्ध करने वाली हैं, लक्ष्मी रूप में साक्षात भगवान विष्णु को मुग्ध करती हैं। भगवान शिव भी शीघ्र ही अपनी
वर्तमान योग-समाधि का त्याग कर देंगे।” इस प्रकार हिमालय-राज को सांत्वना देकर तथा पार्वती के दर्शन कर नारद मुनि
चले गए।
नारद जी के गमन पश्चात, मैना ने हिमालय से कहा! “नारद जी ने जो कुछ कहा हैं, मैं उसे अच्छी तरह नहीं समझ पाई हूँ, आप कन्या का विवाह किसी सुन्दर वर के साथ कर दीजिये, 'गिरिजा' (पार्वती) का वर कुलीन और संपन्न
होना चाहिये। मेरी पुत्री मुझे प्राणों से भी प्रिय हैं, आप कुछ ऐसा कीजिये जिससे वह सुखी और प्रसन्न रहें। इस कारण मैना नाना प्रकार से विलाप
करने लगी।” हिमालय-राज ने अपनी पत्नी को समझाया! मुनियों की बात कभी झूठी नहीं हो सकती हैं, तुम पुत्री को यह शिक्षा दो कि वह भक्तिपूर्वक
सुस्थिर चित से भगवान शिव हेतु तपस्या करें। शिव के समीप समस्त अमंगल भी मंगल हो जाते हैं, फिर उनका भेष अमंगलकारी ही क्यों न हो।
पार्वती की आठ वर्ष की आयु
होने पर भगवान शिव को सती के पुनः जन्म धारण करने का समाचार
प्राप्त हुआ। उन्होंने मन ही मन बड़े आनंद का अनुभव किया, उन्होंने लौकिक गति का आश्रय लेकर अपने मन को एकाग्र किया और तप करने का
विचार किया। अपने समस्त अनुचरों के साथ भगवान शिव ने भी कामरूप कामाख्या क्षेत्र त्याग कर, हिमालय में कठोर तपस्या हेतु
प्रस्थान किया। जिस स्थान पर पहले कभी गंगा नदी, ब्रह्मलोक से स्वयं अवतरित हुई
थीं, ‘गंगावतरण शिखर’ वहां भगवान शिव ध्यानमग्न होकर
विराजमान हो गए। हिमालय पर रहने वाले गन्धर्वों तथा किन्नरों ने वहां भगवान शिव को एक कूट पर
ध्यान-मग्न देखकर, हिमालय-राज से कहा “भगवान शिव कुछ ही दूर एक कूट पर अपने समस्त प्रमथ गणो के साथ हैं। उनके गणो में कुछ
समाधि लगाये हुए थे तो कुछ थोड़े दूर बैठे हुए थे, कुछ नाच-गा रहे थे तो कोई हंस रहें थे। उनमें से कई नग्न दिगंबर थे तो कुछ
पशु चर्म धारण किये हुए थे, कुछ भस्म लगाये हुए थे, किन्हीं के मस्तक पर जटाएं थीं, इस प्रकार उस भूत-नाथ की विभूति अनुपम
थीं।"
इस प्रकार हिमालय-राज को जब ज्ञात हुआ की भगवान शिव उनके क्षेत्र में ध्यान मग्न हो तपस्या कर रहें हैं, वे उनसे मिलने हेतु गए तथा उनकी पूजा अर्चना की। भगवान शिव ने हिमालय-राज से कहा, “इस निर्जन स्थान पर मैं तपस्या हेतु आया
हूँ, आप केवल इतनी व्यवस्था कर दे कि कोई मेरे पास न आ
पावें, जिससे मेरी तपस्या में किसी प्रकार का विघ्न न पड़ें।
आपने नाना योगियों, मुनियों, किन्नरों को आश्रय स्थल प्रदान कर रखा हैं।” हिमालय-राज ने भगवान शिव को आश्वासन दिया की
कोई भी निरर्थक मनुष्य आपके पास नहीं आ पायेगा, वे निश्चिंत होकर उस स्थान पर तपस्या करें; तदनंतर हिमवान वहां से वापस चले आयें। उन्होंने अपने अनुचरों को बुलवा कर
कठोर चेतावनी दी की, कोई भी ‘गंगावतरण’ शिखर पर उनके आदेश के बिना न जायें। उस चेतावनी के भय से कोई देव, गन्धर्व, किन्नर, पिशाच, राक्षस तथा मनुष्य
यहाँ तक की पशु भी भयभीत हो उस शिखर पर नहीं जाते थे।
यहाँ हिमालय-राज के घर, पार्वती दिन प्रति दिन बढ़ती चली गयी तथा किशोर अवस्था को प्राप्त
हुई। एक दिन पार्वती अपने माता-पिता से बोलने लगी कि “मैं तप साधना हेतु भगवान शिव के पास जाऊंगी तथा
उन्हें प्रसन्न कर पति रूप में प्राप्त करूँगी।” हिमालय-राज ने अपनी पुत्री को भगवान शिव के पास जाने की अनुमति
नहीं दी, उन्हें अनुभव हो रहा था की पार्वती जो बहुत ही कोमल शरीर
वाली हैं, वह किस प्रकार वन में जाएंगी तथा कठोर तप
करेंगी। पार्वती ने अपने माता-पिता को समझाया की वह किसी प्रकार की चिंता न करें, उन्हें कोई दुःखी नहीं कर सकता हैं, वे शीघ्र ही भगवान शिव को आसक्त कर पुनः घर लौट आयेंगी।
अंततः पार्वती के माता-पिता ने उन्हें भगवान शिव के पास जाने की अनुमति दे दी, परन्तु उनके साथ उनकी सहायता हेतु दो सखियाँ भी रहेंगी।
अंततः माता-पिता से पार्वती ने अनुमति प्राप्त हुई, तत्पश्चात, हिमालय-राज उन्हें उस स्थान पर ले गए, जहाँ भगवान शिव सर्वदा योग साधना में
मग्न रहते थे। हिमालय-राज ने भगवान शिव से अपनी पुत्री पार्वती तथा उनकी दो सखियों को अपनी सेवा में रखने का निवेदन
किया। भगवान शिव ने उस मनोरम कन्या को
देखकर आंखें मोड़ ली तथा पुनः ध्यान मग्न हो गए। तदनंतर, हिमालय-राज ने भगवान शिव से निवेदन किया कि वह
प्रतिदिन अपनी कन्या के साथ उनके दर्शनों हेतु आयेंगे, वे अनुमति प्रदान करें। भगवान शिव ने केवल हिमालय-राज को ही आने की आज्ञा दी, पार्वती को नहीं। हिमालय-राज ने इसका कारण ज्ञात करना चाहा, क्यों उनकी कन्या उनकी सेवा हेतु नहीं आ सकती हैं? क्या वह सेवा के योग्य नहीं हैं? भगवान शिव ने हिमालय-राज को हँसते हुए उत्तर
दिया “यह तुम्हारी कन्या सुंदर कटिप्रदेश से सुशोभित, चंद्रमुखी और शुभ लक्षणों से युक्त हैं, इस कारण तुम्हें इसे मेरे समीप नहीं लाना चाहिये।
वेदों ने नारी को मयारूपिणी कहा गया हैं, मैं योगी और सदा माया
से निर्लिप्त रहने वाला हूँ, मुझे युवती स्त्री से
क्या प्रयोजन। मैं नहीं चाहता हूँ की मेरा वैराग्य नष्ट हो जाए और मैं तपस्या से
भ्रष्ट हो जाऊँ।” इस प्रकार के नाना वचन
कहकर भगवान शिव चुप हो गए।
इस पर पार्वती ने भगवान शिव से कहा “आपने तपस्वी होकर गिरिराज से यह क्या कह दिया? आप ज्ञान विशारद हैं, तो भी मेरी बात सुनिए! शक्ति से युक्त होकर ही आप भारी तप कर रहें हैं, सभी कर्मों को करने की उस शक्ति हो ही ‘प्रकृति’ जानना चाहिये, इसी से सभी की सृष्टि, पालन तथा संहार होता हैं। आप कौन हैं? आपका सूक्ष्म प्रकृति क्या हैं? इसका विचार कीजिये, प्रकृति के बिना लिंग रूपी महेश्वर कैसे हो सकता हैं? इस तथ्य को हृदय से विचार कर ही आपको जो कहना हैं वह
कहिये।"
इस पर भगवान शिव ने पार्वती को उत्तर दिया “मैं उत्कृष्ट तपस्या
द्वारा ही प्रकृति का नाश करता हूँ तथा तत्त्वतः प्रकृति रहित ‘शम्भु’ के रूप में स्थित होता
हूँ। अतः सत्पुरुषों को कभी भी प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिये, निर्विकार रहना चाहिये।”
इसके पश्चात पार्वती ने मन ही मन भगवान शिव से कुछ दार्शनिक संवाद किये, जिसके पश्चात भगवन शिव ने उन्हें शास्त्र-विधि के अनुसार उनकी सेवा करने की आज्ञा
दे दी।
हिमालय-राज, पार्वती सहित प्रतिदिन भगवान शिव के दर्शनों हेतु जाते थे, कभी-कभी पार्वती अपने सखियों के साथ भी जाती थीं तथा उनकी भक्ति
पूर्वक सेवा करती थी। कोई भी गण उन्हें रोकता-टोकता नहीं था |
पार्वती नाना प्रकार से विधिवत भगवान शिव की सेवा करने लगी, इस प्रकार महान समय व्यतीत हो गया, इस पर भी वे इन्द्रिय को संयमित कर उनकी सेवा में लगी
रहीं। भगवान शिव, पार्वती की नित्य सेवा तत्परता देख दया से द्रविड़ हो उठे और
विचार करने लगे “जब गिरिजा के अंतर मन में गर्व
का बीज नहीं रहेगा, तब मैं उनका पाणिग्रहण
करूँगा।” ऐसा निश्चय कर भगवान शिव सर्वदा ध्यान मग्न ही रहने लगे।
गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्
गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं
भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्
(हे शिव आप) जो कैलाशपति
हैं, गणों
के स्वामी, नीलकंठ
हैं, (धर्म स्वरूप वृष) बैल की
सवारी करते हैं, अनगिनत
गुण वाले हैं, संसार
के आदि कारण हैं, प्रकाश
पुञ सदृश्य हैं, भस्मअलंकृत
हैं, जो
भवानिपति हैं, उन
पञ्चमुख (प्रभु) को मैं भजता हूँ।
भगवान शिव और माता पार्वती
जब से सती जी ने अपने देह का त्याग किया था तब से शिव जी के मन में वैराग्य हो गया था। उन्होंने स्वयं को श्री राम की भक्ति में लीन कर लिया था और समस्त पृथ्वी पर विचरण करते रहते थे। इस प्रकार से जब एक लंबा अन्तराल व्यतीत हो गया तो एक दिन कृपालु, रूप और शील के भण्डार श्री रामचन्द्र जी ने शिव जी के समक्ष प्रकट होकर उनकी सराहना की और उन्हें पार्वती जी के जन्म तथा तपस्या के विषय में बताया। उन्होंने शिव जी से पार्वती के साथ विवाह कर लेने का आग्रह किया जिसे शिव जी ने मान लिया।
श्री राम के चले जाने के पश्चात् शिव जी के पास सप्तर्षि आये। शिव जी ने सप्तर्षियों को पार्वती जी के प्रेम की परीक्षा लेने के लिये कहा।
सप्तर्षियों ने पार्वती जी के पास जाकर पूछा, “ हे शैलकुमारी, तुम किसलिए इतना कठोर ताप कर रही हो ?”
पार्वती जी ने कहा, “मैं शिवजी को पति रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ।”
सप्तर्षि बोले, “शिव तो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर बार का, नंगा और शरीर पर सर्पों को धारण करने वाला है। उसने तो अपनी पहली पत्नी सती को त्यागकर मरवा डाला। अब भिक्षा माँग कर उदरपूर्ति कर लेता है और सुख से सोता है। स्वभाव से ही अकेले रहने वाले के घर में भी कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं? ऐसा वर मिलने से तुम्हें किसी प्रकार का सुख नहीं मिल सकता।“
“तुम नारद के वचनों को मान कर शिव का वरण करना चाहती हो किन्तु तुम्हें स्मरण रखना चाहिये कि नारद ने आज तक किसी का भला नहीं किया है। उसने दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया और बाद में उनकी ओर पलट कर भी नहीं देखा। चित्रकेतु के घर को नारद ने ही चौपट किया। उसके कहने में आकर यही हाल हिरण्यकश्यपु का भी हुआ।“
“हमारा कहना मानो, हमने तुम्हारे लिये बहुत अच्छा वर ढूँढा है। हमारी सलाह मान कर तुम विष्णु से विवाह कर लो क्योंकि विष्णु समस्त दोषों से रहित, सद्गुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और बैकुण्ठ का वासी है।”
सप्तर्षि के वचन सुनकर पार्वती जी ने हँस कर कहा, “अब चाहे मेरा घर बसे या उजड़े, भले ही महादेव जी अवगुणों के भवन और विष्णु सद्गुणों के धाम हों, मेरा हृदय तो शिव जी ही में रम गया है और मैं विवाह करूँगी तो उन्हीं से ही।”
पार्वती जी के शिव जी के प्रति प्रेम को देख कर सप्तर्षि अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले, ” हे जगतजननी, हे भवानी, आपकी जय हो, आप माया है और शिव भगवान है। आप दोनों ही समस्त जगत के माता –पिता है। आपका कल्याण हो।”
इतना कहकर और पार्वती जी के चरणों में सर नवाकर सप्तर्षियों ने पार्वती जी को उनके पिता हिमवान के पास भेज दिया और स्वयं शिव जी के पास आ गये। उन्होंने शिव जी को अपने परीक्षा लेने की सारी कथा सुनाई जिसे सुन कर शिव जी आनन्दमग्न हो गये।
शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप
महेशान शूलिञ्जटाजूटधारिन्
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूपः
प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप
हे शिवा (पार्वति) पति, शम्भु!
हे चन्द्रशेखर! हे महादेव! आप त्रीशूल एवं जटाजूट धारण करने वाले हैं।
हे विश्वरूप! सिर्फ आप ही स्मपुर्ण जगद में व्याप्त हैं। हे पूर्णरूप आप प्रसन्न
हों, प्रसन्न
हों।
भगवान शिव
सती जी के देहत्याग के पश्चात जब शिव जी गहन तपस्या में लीन हो गये थे उसी समय तारक नाम का एक असुर हुआ। उसने अपने भुजबल, प्रताप और तेज से समस्त लोकों और लोकपालों पर विजय प्राप्त कर लिया जिसके परिणामस्वरूप सभी देवता सुख और सम्पत्ति से वंचित हो गये।
तारकासुर ने उग्र तप कर तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया तथा स्वयं 'इंद्र' हो गया, उसके सामान दूसरा कोई शासक नहीं रहा। तारकासुर के तपस्या से संतुष्ट होकर, ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया! “शिव पुत्र के हाथों से ही उसकी मृत्यु होगी अन्यथा नहीं”। पीड़ित देव-गण, ब्रह्मा जी की शरण में गए तथा उनसे, उसके वध हेतु कोई उपाय करने का निवेदन किया। उस समय तीनों लोकों का वह अधिपति था तथा उसने समस्त देवताओं को उनके अधिकारों से वंचित कर, अपने अधीन ले लिया था, ब्रह्मा जी उसे वर देकर बंध गए थे। उन्होंने देवताओं को सुझाया कि सभी देवता संसार से विरक्त हुए भगवान शिव के पास जाकर उनसे निवेदन करें कि हिमालय-कन्या ‘गिरिजा’ जो पूर्व जन्म में सती थीं उन्हें वे पत्नी रूप में स्वीकार करें। ब्रह्मा जी ने समस्त देवताओं को कोई ऐसा उपाय करने हेतु कहा जिससे भगवान शिव, पार्वती से विवाह करें एवं उनके वीर्य को धारण कर पार्वती पुत्र उत्पन्न कर सकें। भगवान शिव के वीर्य से उत्पन्न पुत्र से ही तारक-असुर का वध संभव था, इसके अतिरिक्त कोई भी उसका वध करने में समर्थ नहीं हैं।
परन्तु, तीनों लोकों में
सर्वाधिक सुन्दर पार्वती द्वारा प्रतिदिन उनकी सेवा करने पर भी, भगवान शिव का ध्यान भंग नहीं हो
पा रहा था। ध्यान-भंग कर पार्वती की ओर देखने का भी उनके मन में विचार नहीं आता था, वे महान योगी हैं; इस पर देव-गुरु वृहस्पति ने देवताओं को मदन काम-देव के द्वारा उनके ध्यान
भंग करने का उपाय सुझाया। देवता जानते थे की पार्वती उन्हें पति रूप में
प्राप्त करने हेतु उनकी नाना प्रकार से आराधना कर रहीं हैं, परन्तु अधिक समय से योग समाधि में लीन भगवान शिव अपने ध्यान से च्युत
नहीं हो रहें हैं।
देवराज ने ‘पुष्पधन्वा कामदेव’ जिनके पाँच बाण सभी कार्यों को सिद्ध करने वाले हैं, बुलवाकर आदेश दिया कि! “तारकासुर के अत्याचारों से तीनों लोक त्रस्त हैं तथा उनकी मृत्यु भगवान शिव के पुत्र द्वारा ही हो
सकती हैं, उसे ब्रह्मा
जी का आशीर्वाद प्राप्त हैं। भगवान शिव, हिमालय के शिखर पर बैठ
कर तपस्यारत हैं, जो संसार से अनासक्त
हैं। आदि शक्तिजो पूर्व में सती रूप में उनकी पत्नी थीं, हिमालय के पुत्री के रूप में उत्पन्न हो, भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने हेतु उत्तम सेवा-आराधना
कर रहीं हैं। किन्तु भगवान शिव को उन कामिनी के रूप में कोई स्पृहा नहीं हैं, तुम योग्निष्ठा में रत उनको सम्मुग्ध करों। तुम कुछ ऐसा करो जिससे वे
तप-साधन का त्याग कर, पार्वती के प्रति वैसे ही आसक्त हो जाए जैसे वे सती के प्रति थे।”
(इस पर काम-देव को ब्रह्म प्रदत्त दीर्घ काल से भूले हुए एक श्राप का
स्मरण हो आया, जब उन्होंने शस्त्र
परीक्षा के समय साध्य पुत्री की ओर दौड़ते हुए विधाता को अपने पुष्प-बाणों से बिंध
दिया था। और उन्हें ये श्राप मिला था “देव कार्य हेतु वे भगवान शिव के अंगों पर बाण का प्रयोग करेंगे तथा उनके क्रुद्ध
नेत्रों से निसृत अग्नि से भस्म हो जायेंगे।”)
काम-देव ने देवराज इंद्र को आश्वस्त किया की वे अवश्य ही भगवान शिव को सम्मुग्ध करेंगे। काम-देव ने देवताओं से निवेदन किया, “ यदि भगवान शिव उन्हें नष्ट करने का
प्रयास किया तो सभी मिलकर उन्हें बचाने का प्रयास करें।“ तत्पश्चात, काम-देव अपनी पत्नी रति तथा मित्र वसंत के संग भगवान शिव के तपोवन की ओर चले। साथ ही देवराज ने समस्त देवताओं को आज्ञा दी की वे सभी काम-देव के संग जाए तथा उनकी
सहायता करें।
भगवान शिव के तपो-वन में
पहुँच-कर, काम-देव ने कुछ समय तक प्रतीक्षा की तथा उनके किसी दुर्बलता को ज्ञात करने का
प्रयास किया, जिससे वे उन पर काम-वाणों द्वारा आक्रमण
कर सकें। काम-देव तथा वसंत के उस स्थान पर उपस्थित होने के कारण, वहां पर उपस्थित सभी पशु-पक्षी तथा शिव-अनुचर काम
मुग्ध विकल हो उठे, वसंत की उपस्थित होने
के कारण वहां का वातावरण काम-मुग्ध हो गया। उस समय मलयजन्य शीतल मंद सुगन्धित वायु
बहने लगी, सभी प्राणी समुत्कंथित हो गए। भगवान शिव को निश्चल देखकर, कामदेव बहुत चिंतित हुए, अपने पत्नी रति द्वारा निषेध करने पर भी वे आगे बड़े तथा सम्मोहन बाण का उनपर संधान किया। परन्तु वह बाण भगवान शिव को देखकर पुनः लौट आया। इस प्रकार काम-देव को भगवान शिव के पास देखकर पार्वती
भी उनके सम्मुख गई; भगवान शिव कुछ क्षण हेतु ध्यान का परित्याग कर उनकी ओर देखने लगे। इस स्थित देखकर काम-देव, अपना धनुष लिए भगवान शिव के और अधिक निकट गए, समस्त देवता गण भी वही आकाश में उपस्थित थे। कामदेव ने सर्वप्रथम भगवान शिव के छाती में हर्षण नाम का बाण चलाया, जिससे उन्होंने प्रहृष्ट हो पार्वती की ओर दृष्टि पात
किया। कामदेव की सहायता हेतु भगवान शिव के आसपास मनोहर शीतल
मंद सुगंधित वायु बहाने लगी। तदनंतर कामदेव ने सम्मोहन नाम के बाण का प्रयोग किया, उस समय काम-देव की सेना ने भगवान शिव को चारों ओरों से घेर लिया, दक्षिण की ओर रति, बाएं ओर प्रीति तथा पीछे की ओर परम सुख प्रदान करने
वाले वसंत स्थित हो गए। इसके पश्चात कामदेव ने सभी के देखते ही
देखते मोहक बाण चलाया, जो भगवान शिव के हृदय में प्रविष्ट हो गया, जिसके परिणामस्वरूप वे पार्वती के आलिंगन हेतु उद्यत
हुए। यह देख देवताओं ने कामदेव की भूरी-भूरी प्रशंसा की, उन्हें ऐसा लग रहा था की ऐसा कोई भी काम नहीं हैं जिसे वे न कर सकें।
भगवान शिव ने उपस्थित परिस्थिति हेतु, अपनी इन्द्रियों पर पुनः निग्रह कर चित्त में आये विकार पर विचार किया। इस
बीच वहां पर ब्रह्मा जी भी पहुँच गए और
उपस्थित समस्त देवताओं ने महादेव की स्तुति करना प्रारंभ किया। ब्रह्मा जी ने कामदेव तथा वसंत को तत्काल खिंच कर पीछे हटाया। भगवान शिव ने यह समझ लिया, अवश्य ही यह आक्रमण कामदेव का हैं तथा उन्होंने
क्रोध युक्त हो प्रलय-काल की अग्नि के सामान प्रज्वलित अपना तृतीय नेत्र खोला।
उनके तीसरे नेत्र से सम्पूर्ण जगत को भस्म करने वाली प्रबल अग्नि निकली तथा तत्काल
ही कामदेव को भस्म कर दिया। यह
देख पार्वती का सारा शरीर श्वेत
वर्ण युक्त हो गया, वहां पर उपस्थित देव
समूह इस घटना पर बड़े ही दुःखी तथा हतोत्साहित हुए। कामदेव की पत्नी रति यह देख क्षण भर के लिए
अचेत हो गई, कुछ क्षण पश्चात उनकी चेतना आने पर वे
बहुत विलाप करने लगी, इस पर वहां उपस्थित
सभी बहुत दुःखी हुए। सभी देवताओं ने रति से कहा तुम कामदेव के थोड़े से भस्म को
अपने पास रखो, भगवन शिव उन्हें पुनः जीवित कर देंगे।
इस प्रकार समस्त देवगणो ने भगवान शिव की स्तुति की, उनसे निवेदन किया की
वे कामदेव के इस कृत्य पर
प्रसन्नता तथा न्यायपूर्वक पूर्वक विचार करें, इसमें कामदेव का कोई स्वार्थ नहीं हैं। हम सभी देवताओं के कहने पर
ही उन्होंने यह कार्य किया हैं, इसे आप अन्यथा न समझे।
आपके क्रोध के कारण उपस्थित परिस्थिति हेतु ही सती-साध्वी रति अकेली हो गई हैं और अत्यंत दुःखी हो
विलाप कर रही हैं, कृपा कर आप उसे
सांत्वना प्रदान करें। आपको रति के शोक का निवारण करना चाहिये! अन्यथा इस संसार के
समस्त प्राणियों का संहार हो जायेगा। इस पर भगवान शिव ने देवताओं से कहा, “मेरे क्रोध से जो हो गया, वह अन्यथा नहीं हो
सकता हैं,”
कामदेव की स्त्री रति रुदन करते हुए शिव जी के पास आई। उसके विलाप से
द्रवित हो कर शिव जी ने कहा, “ हे रति, विलाप मत कर ! जब पृथ्वी के भार को उतारने के लिये यदुवंश में श्री कृष्ण अवतार होगा तब
तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा और तुझे पुनः प्राप्त
होगा। तब तक वह बिना शरीर के
ही इस संसार में व्याप्त होता रहेगा। अंगहीन हो जाने के कारण लोग अब कामदेव को अनंग
के नाम से भी जानेंगे।”
देवताओं ने भगवान शिव से पुनः निवेदन किया कि वे काम-देव को शीघ्र ही जीवन-दान देकर रति के प्राणों की रक्षा करें। भगवान शिव ने देवताओं को आश्वासन दिया! वे काम-देव को पुनः सभी के हृदय में स्थापित कर देंगे, वह उनका गण होकर विहार करेगा। इसके पश्चात भगवान शिव वहां से अंतर्ध्यान हो गए तथा सभी देवता अपने-अपने स्थान को चले गए।
भगवान शिव के तीसरे नेत्र से
प्रकट हुई अग्नि, बिना किसी प्रयोजन के
ही प्रज्वलित हो सभी दिशाओं में फैलने लगी। जिसके कारण समस्त प्राणियों में
हाहाकार मच गया, देवता तथा ऋषि, ब्रह्मा जी की शरण में गए। ब्रह्मा जी ने भगवान शिव की कृपा से प्राप्त
हुए तेज से, उस वडवाग्नि को स्तंभित कर दिया तथा उसे
एक घोड़े के रूप में परिवर्तित कर दिया, जिसके मुख से ज्वालाएँ
निकल रहीं थीं। इसके पश्चात उस घोड़े को लेकर ब्रह्मा
जी समुद्र तट पर गए, उन्हें देख समुद्र हाथ जोड़-कर उनके सनमुख आयें तथा उनसे आगमन का कारण पूछा। ब्रह्मा जी ने सिन्धु से कहा! “यह अश्व साक्षात् भगवान शिव का क्रोध हैं, काम-देव को भस्म करने के
पश्चात यह सम्पूर्ण जगत को भी दग्ध करने को उद्धत हुआ हैं। मैंने इसे स्तंभित कर, घोड़े के रूप में परिवर्तित कर दिया हैं; यह अश्व जो अपने मुख से ज्वाला प्रकट कर रहा हैं, तुम प्रलय-काल तक इसे धारण करो।” ब्रह्मा जी के निवेदन को
सिन्धु-राज ने स्वीकार कर लिया, यह दूसरे किसी और के
लिए असंभव था। तदनंतर, वह वडवाग्नि समुद्र
में प्रविष्ट हुई तथा सागर के जल का दहन करने लगी, इसके पश्चात ब्रह्मा जी अपने लोक को चले आयें।
इसके बाद ब्रह्मा जी सहित समस्त देवताओं ने शिव जी के पास आकर उनसे पार्वती
जी से विवाह कर लेने के लिये प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्
निरीहं निराकारमोंकारवेद्यम्
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्
हे एकमात्र परमात्मा! जगत के आदिकारण! आप
इक्षारहित, निराकार
एवं ॐकार स्वरूप वाले हैं। आपको सिर्फ प्रण (ध्यान) द्वारा ही जान जा सकता है।
आपके द्वारा ही सम्पुर्ण सृष्टी की उतपत्ति होती है, आपही
उसका पालन करते हैं तथा अंतत: उसका आप में ही लय हो जाता है। हे प्रभू मैं आपको
भजता हूँ।
माता पार्वती
काम-देव को भस्म करने वाली
परिस्थिति से पार्वती भयभीत हो गई तथा अपने दोनों सखियों के संग अपने घर
चली आयी। काम-देव को दाह करने के पश्चात भगवान शिव अदृश्य हो गए थे, उनके विरह से पार्वती अत्यंत व्याकुल हो गयी
एवं क्लेश का अनुभव करती थीं। वे सर्वदा ही शिव-शिव का जप किया करती थीं, पिता के घर रहकर वह अपनी कल्पना भगवान शिव के संग ही करती थीं।
एक दिन नारद मुनि घूमते हुए हिमालय के गृह में गए, हिमवान ने उनका यथोचित आदर
सत्कार किया। हिमवान ने देवर्षि नारद को सुखद आसन प्रदान किया तथा उनसे सब कुछ कह सुनाया।
देवर्षि ने हिमवान को भगवान शिव के भजन करने का
परामर्श दिया तथा गुप्त भाव से पार्वती के पास गए और उनसे कहा “तपस्या के गर्व युक्त हो तुमने भगवान शिव की तपस्या की थीं, उन्होंने तुम्हारे उसी
गर्व को नष्ट किया हैं। तुम्हारे स्वामी महेश्वर विरक्त तथा
महायोगी हैं, उन्होंने केवल काम-देव को भस्म कर तुम्हें
जीवित छोड़ दिया हैं। तुम उत्तम तपस्या में संलग्न हो चिरकाल तक शिव की आराधना करो। तपस्या से तुम्हारा
संस्कार हो जाने पर भगवान शिव तुम्हें अपनी पत्नी रूप में स्वीकार करेंगे, तुम्हारा परित्याग नहीं करेंगे। तुम उनके अतिरिक्त किसी और को अपना पति
स्वीकार नहीं करना।”
इसपर पार्वती, देवर्षि से बोली, “आप सर्वज्ञ हैं, इस चराचर जगत का उपकार करने वाले हैं, मुझे भगवान शिव के आराधना हेतु कोई
मन्त्र प्रदान करें, उचित मार्गदर्शन
करें।” इस प्रकार पार्वती के निवेदन पर देवर्षि
ने उन्हें भगवान शिव के पंचाक्षर मन्त्र का
विधिपूर्वक उपदेश दिया तथा मन्त्र का प्रभाव भी बताया।
नारद जी के प्रस्थान पश्चात
उन्होंने शिव-तपस्या को ही अपना साध्य माना और मन को उसके लिए निश्चल किया। अपनी दो सखियों के
साथ पार्वती ने तपस्या हेतु
माता-पिता से आज्ञा मांगी। पिता हिमवान ने तो आज्ञा दे दी, परन्तु, माता मैना ने स्नेह-वश उन्हें
रोका, उस समय उनके मुंह से ‘ओ माँ’ (उमा) निकली, जिस कारण उनका एक नाम 'उमा' भी लोक विख्यात हो गया। अंततः मैना ने भी उन्हें कठोर
तपस्या हेतु वन में जाने की अनुमति दे दी। अपनी दो सखियों के संग पार्वती ने तपस्या हेतु ‘गंगावतरण क्षेत्र’ हेतु प्रस्थान किया, शीघ्र ही उन्होंने
वल्कल धारण कर, प्रिय वस्त्रों का
परित्याग किया। पार्वती ने उस स्थान में तपस्या प्रारंभ की जहां पर काम-देव को दग्ध किया गया था, उनके द्वारा उस स्थान पर तप करने के कारण, उस शिखर का नाम “गौरी-शिखर” पड़ गया (पार्वती का एक नाम गौरी भी हैं)।
उन्होंने ऐसी तपस्या प्रारम्भ की जो महान मुनियों हेतु भी कठिन था, वे मन सहित इन्द्रियों को वश में रखकर ग्रीष्म ऋतु में अपने चारों और अग्नि प्रज्वलित कर, वर्षा काल में वर्षा के जल से भीग कर तथा शीत काल में हिम खण्डों में बैठ कर, शिव के पंचाक्षर मन्त्र का जप करती थीं। शुद्ध चित वाली पार्वती के ऊपर नाना महान कष्ट आयें परन्तु उनका तप निश्चल ही रहा, वे केवल शिव में मन लगाये रहती थीं। पार्वती ने प्रथम वर्ष केवल फलाहार ही किया, द्वितीय वर्ष से असंख्य वर्षों तक उन्होंने केवल पत्तों को भोजन के रूप में ग्रहण किया। इसके पश्चात उन्होंने निराहार रहकर (जिसके कारण उनका एक नाम ‘अपर्णा’ भी विख्यात हुआ) साधना प्रारंभ की, एक पैर से खड़ी हो पार्वती साधना करने लगी, उनके अंग चीर और वल्कल से ढके थे, वे मस्तक पर जटाओं का समूह धारण किये रहती थीं, इस प्रकार कठोर तप करने के कारण उन्होंने देवताओं तथा मुनियों को जीत लिया।
जहाँ पहले कभी भगवान शिव ने ६० हजार वर्षों तक तपस्या की थीं, उस स्थान पर क्षण-भर रुककर पार्वती सोचने लगी, “क्या महादेव यह नहीं जानते हैं की मैं उनके लिए उत्तम तथा कठोर नियमों का पालन कर तप कर रहीं हूँ? क्या कारण हैं की दीर्घ काल तक कठोर तप करने वाली इस सेविका के पास वे नहीं आयें? वेद-मुनिजन भगवान शिव की गुणगान करते हैं, कहते हैं कि शिव सर्वज्ञ, सर्वात्मा, सर्वदर्शी, समस्त प्रकार के सुख प्रदान करने वाले, दिव्य शक्ति संपन्न, सबके मनोभाव को समझने वाले, भक्तों को उनकी अभीष्ट वास्तु प्रदान करने वाले, समस्त क्लेशों के निवारण करने वाले हैं। यदि मैं समस्त कामनाओं का परित्याग कर भगवान शिव मैं अनुरक्त हुई हूँ तो वे मुझ पर प्रसन्न हो, यदि मैंने नारद जी द्वारा प्रदत्त शिव पञ्चाक्षर मन्त्र का उत्तम भक्तिभाव युक्त हो तथा विधिपूर्वक जप किया हो तो भगवान शिव मुझ पर प्रसन्न हो।”
इस प्रकार नित्य चिंतन करती हुई पार्वती अपना मुंह नीचे किये दीर्घ काल तक तपस्या में लगी
रहीं, परन्तु भगवान शिव प्रकट नहीं हुए। पार्वती के माता-पिता, मेरु और मंदराचल आदि ने उन्हें समझाया की भगवान शिव की तपस्या अत्यंत कठिन हैं, वे तपस्या का त्याग करें। पार्वती ने उनसे कहा “आप! मेरी जो प्रतिज्ञा हैं उसे सुन ले! काम-देव को भस्म करने वाले भगवान शिव विरक्त हैं, परन्तु मैं अवश्य ही अपने तप से उन्हें संतुष्ट कर
लुंगी। आप सभी प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने निवास स्थल को जाये।”
इस प्रकार पार्वती के दृढ़ निश्चय को देखकर सभी अत्यंत विस्मित होकर जैसे
आयें थे, वैसे ही लौट गए। उनके जाने के पश्चात पार्वती ने और भी अधिक कठोर
ताप करना प्रारम्भ कर दिया, जिसके कारण तीनों लोक
संतप्त हो उठें, सभी महान कष्ट में पड़
गए। यह देख समस्त देवता निस्तेज होकर ब्रह्मा जी की शरण में गए तथा उन्होंने जगत के संतप्त होने का कारण
पूछा। ब्रह्मा जी ने मन ही मन सब ज्ञात
किया और देवताओं से बोले “उपस्थित, तीनों लोकों में जो दाह उत्पन्न हुआ हैं, वह पार्वती की तपस्या का फल हैं।” ब्रह्मा
जी समस्त देवताओं के संग भगवान
विष्णु के पास क्षीर सागर में गए तथा उनको
उत्पन्न परिस्थिति से अवगत करवाया। भगवान विष्णु बोले “मैंने आज पार्वती की तपस्या का कारण जान
लिया हैं, अब तुम सभी मेरे साथ भगवान शिव के पास चलो। हम सभी
उनसे प्रार्थना करेंगे की वे पार्वती का पाणिग्रहण करें, जैसे भी हो वे पार्वती के आश्रम में जाकर उन्हें वरदान प्रदान करें। हम सभी
उस स्थान पर चलेंगे जहाँ भगवान शिव तपस्या कर रहे हैं।” सर्वप्रथम देवताओं को भगवान शिव के पास जाने से डर लग रहा था, परन्तु भगवान विष्णु के समझाने पर उनका डर दूर हुआ।
ब्रह्मा तथा विष्णु सहित समस्त देवता भगवान शिव के निकट गए तथा उनकी स्तुति-वंदना की ! नंदिकेश्वर ने भगवान शिव से कहा कि देवता तथा
मुनि महान संकट में पड़कर आपके पास आयें हैं, कृपा कर आप उनका उद्धार करें। तदनंतर, भगवन शिव ने अपना नेत्र खोला
तथा ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त देवताओं से उनके आने का कारण पूछा। भगवान
विष्णु ने कहा, “तारकासुर देवताओं को अत्यंत दुःख तथा महान कष्ट दे रहा हैं, आपके पुत्र द्वारा ही उस असुर का वध संभव हैं, अन्यथा नहीं। आप गिरिजा का पाणिग्रहण कर, देवताओं पर कृपा करें।” भगवान
विष्णु का यह कथन सुनकर भगवान शिव ने कहा “जैसे ही मैंने गिरिजा का पाणिग्रहण किया, सभी जीव सकाम हो जायेंगे। मैंने काम-देव को जलाकर देवताओं का
बहुत बड़ा कार्य सिद्ध किया हैं, आज से सभी लोग मेरे
साथ सुनिश्चित रूप से निष्काम होकर रहें। समाधि के द्वारा परमानंद का अनुभव करते
हुए सभी निर्विकार हो जायेंगे, काम नरक की प्राप्ति कराने वाला हैं, सभी देवताओं को काम और क्रोध का परित्याग कर देना
चाहिये।” इस प्रकार उन्होंने ब्रह्मा-विष्णु सहित देवताओं तथा
ऋषि-मुनियों को निष्काम धर्म का उपदेश दिया, इसके पश्चात वे पुनः ध्यान लगाकर चुप हो गए। देवताओं ने पुनः भगवान शिव की स्तुति कर उनपर
आयें महान क्लेश का उद्धार करने का निवेदन किया। ब्रह्मा तथा विष्णु जी ने मन ही मन भगवान शिव से दीनतापूर्ण वाणी द्वारा अपना अभिप्राय निवेदन किया; अंततः वे प्रसन्न हुए। भगवान
श्री हरी विष्णु ने कहा “नारद जी की आज्ञा से पार्वती कठोर तप कर रहीं हैं, जिसके कारण त्रिलोकी आच्छादित हो रहीं हैं, आप उन्हें अभिलाषित वर प्रदान करें। आप सर्वज्ञ हैं, अंतर्यामी हैं, आप अवश्य ही समस्त परिस्थिति के ज्ञाता हैं।” तदनंतर, भगवान शिव ने ब्रह्मा-विष्णु तथा अन्य देवताओं के
निवेदन को स्वीकार कर लिया।
देवताओं के चले जाने के पश्चात, पार्वती की तप की परीक्षा लेने हेतु भगवान शिव समाधिस्थ हो गए। उन दिनों पार्वती देवी बड़ी भरी उग्र तप
कर रहीं थीं, उनके उग्र तप को देखकर भगवान शिव भी विस्मय में पड़ गए।
उन्होंने वशिष्ठ इत्यादि सप्त-ऋषियों का स्मरण किया, जिसके कारण शीघ्र सभी मुनि वहां उपस्थित हुए। उनसे भगवान शिव ने कहा, “गौरी-शिखर पर देवी पार्वती कठोर तप कर रहीं हैं, मुझे पति रूप में प्राप्त करना ही उनका एकमात्र
उद्देश्य हैं। मेरे अतिरिक्त अन्य सभी कामनाओं का परित्याग कर, वे एक उत्तम निश्चय पर पहुँच चुकी हैं। तुम सभी उस
स्थान पर जाओ और दृढ़ता से उनकी परीक्षा लो, वहां तुम्हें सर्वथा छलयुक्त बातें कहनी चाहिये।” भगवान शिव की आज्ञा पाकर वे तुरंत ही उस स्थान पर गए, वहां जाकर उन्होंने पार्वती का महान तेज देखा। सप्त-ऋषि गण, साधारण मुनि रूप धारण कर पार्वती के पास गए तथा उनके इस कठोर तप का कारण पूछा! पार्वती ने उन्हें बताया कि वे भगवान शिव को पति रूप में
प्राप्त करना चाहती हैं।
उन्होंने शिव को ये सब कहा और बताया कि पार्वती उनकी प्रतीक्षा कर रही है।
न भूमिर्नं चापो न वह्निर्न वायु-
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे
र्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा
न गृष्मो न शीतं न देशो न वेषो
न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे
जो न भुमि हैं, न
जल, न
अग्नि, न
वायु और न ही आकाश, – अर्थात
आप पंचतत्वों से परे हैं। आप तन्द्रा, निद्रा, गृष्म
एवं शीत से भी अलिप्त हैं। आप देश एव वेश की सीमा से भी परे हैं। हे निराकार
त्रिमुर्ति मैं
आपकी स्तुति करता हूँ।
भगवान शिव और माता पार्वती
इसके पश्चात भगवान शिव ने साक्षात पार्वती की परीक्षा लेने का निश्चय किया, मन ही मन वे पार्वती से बहुत संतुष्ट थे।
एक बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर दंड तथा छत्र लिए वे उनके आश्रम में गए, तेजस्वी ब्राह्मण को आया देखकर पार्वती ने उनकी पूजा की तथा
आदरपूर्वक कुशल-समाचार पूछा। पार्वती ने उनसे पूछा आप कौन हैं तथा कहाँ से आयें हैं? ब्राह्मण ने कहा “मैं इच्छानुसार विचरण करने वाला वृद्ध ब्राह्मण हूँ। तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो और इस निर्जन वन में किस उद्देश्य
हेतु तपस्या कर रहीं हो? "
पार्वती ने कहा “मैं हिमाचल की पुत्री ‘पार्वती’ हूँ, इससे पहले जन्म में
मैं शिव पत्नी तथा दक्ष कन्या सती थीं। पूर्व में मैंने अपने पितृ गृह में पति निंदा
सुनकर, अपने शरीर का त्याग कर दिया था। मैं इस शिखर पर भगवान शिव को पति रूप में
प्राप्त करने हेतु कठोर तप कर रहीं हूँ, परन्तु वे संतुष्ट हो
मुझे दर्शन नहीं दे रहें हैं। अब मैं अग्नि में प्रवेश करूँगी, इसके पश्चात जहाँ-जहाँ मेरा जन्म होगा, मैं भगवान शिव को ही पति रूप में वरण करूँगी।”
तदनंतर, देखते ही देखते पार्वती अग्नि में समा गयी, उन्हें ऐसा करने से ब्राह्मण ने बार-बार रोका, परन्तु उनकी तपस्या के प्रभाव से वह अग्नि भी शीतल हो
गई। क्षण भर अग्नि में रह कर पार्वती जब आकाश की ओर उठीं तो ब्राह्मण रूप धारी शिव ने कहा “तुम्हारा तप क्या हैं, यह मेरी समझ में नहीं
आ रहा हैं। इधर अग्नि से तुम्हारा शरीर नहीं जला, यह तो तपस्या के सफलता का सूचक हैं, परन्तु तुम तो कह रहीं हो की तुम्हारा मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ हैं। तुम अपने
मनोरथ के विषय में मुझ ब्राह्मण से सच-सच बताओ।"
इस पर पार्वती ने अपनी सखी विजया को प्रेरित किया कि वह
ब्राह्मण को सब बताएं। विजया ने कहा “मैं अपनी सखी पार्वती के इस उत्तम तपस्या के
कारण का वर्णन करती हूँ। देवी, भगवान शिव के अतिरिक्त किसी और से विवाह नहीं करेंगी, इस कारण मेरी सखी ‘पार्वती’, नारद जी के मार्गदर्शन अनुसार
३ हजार वर्षों से कठोर तपस्या कर रहीं हैं।”
विजया के इस प्रकार कहने पर
ब्राह्मण हँसते हुए बोले “तुमने जो कुछ कहा हैं
उनमें मुझे परिहास का अनुमान होता हैं, यदि यह सब ठीक हैं तो
देवी स्वयं अपने मुंह से कहें।” इस पर पार्वती ने उत्तर दिया “मेरी सखी ने जो भी कहाँ हैं वह सत्य हैं, मैंने साक्षात् भगवान शिव को ही पति भाव से वरण किया हैं।” यह सुनकर ब्राह्मण रूपी भगवान शिव वहां से जाने लगे तथा कहा “जब तुम्हारा सुख इसी में हैं तो मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ, तुम्हारा जैसा कार्य हैं वैसा ही परिणाम भोगो।” जाते हुए ब्राह्मण को पार्वती ने रोकते हुए कहा कि
कुछ क्षण ठहर कर आप मेरे हित का उपदेश देते जाए। पार्वती के इस प्रकार कहने पर
ब्राह्मण देवता वही रुक गए और कहने लगे!
“यदि तुम मुझे भक्तिभाव से ठहरा रहीं हो तो मैं तुम्हें तत्त्व बता रहा हूँ, जिससे तुम्हें हित का ज्ञान हो जायेगा। मैं भगवान शिव को भली प्रकार से जनता हूँ, तभी यथार्थ बता रहा हूँ, तुम सावधान होकर सुनो! भगवान शिव शरीर में भस्म का लेपन करते हैं, सर पर जटा धारण करते हैं, बाघ का अम्बर पहनते हैं, हाथी का खाल ओड़ते हैं, भीख मांगने के लिए एक खप्पर धरण किये रहते हैं, झुण्ड के झुण्ड सांप उनके शरीर तथा मस्तक में देखे जाते हैं। वे विष खाकर ही पुष्ट होते हैं, अभक्ष्य-भक्षक हैं, उनके नेत्र बड़े ही भद्दे तथा डरावने हैं, उनके जन्म का कोई अता-पता नहीं हैं, गृहस्थी के भोगो से दूर वे सर्वदा ही नंग-धडंग घूमते हैं और भूत-प्रेतों को अपने साथ रखते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं, यह तो बड़ी विड़म्बना हैं, कैसे तुम उन्हें अपना पति बनाने की सोच रहीं हो? तुम्हारा ज्ञान क्या कही लुप्त हो गया हैं? तुम्हारे पिता पर्वतों के राजा हैं, तुम स्त्रियों में रत्न हो, क्यों सोने की मुद्रा देकर उतना ही कांच लेना चाहती हो? क्या तुम चन्दन का लेपन छोड़कर शरीर में कीचड़ लपेटना चाहती हो? सूर्य के तेज का त्याग कर जुगनू की तरह चमकना चाहती हो? उत्तम वस्त्र त्याग कर चमड़े का वस्त्र धारण करना चाहती हो ? घर में रहना छोड़कर, धुनी रमना चाहती हो? तुम रत्न के भंडार को त्याग कर लोहा पाने की इच्छा करती हो। तुम्हारा शिव के साथ सम्बन्ध परस्पर विरुद्ध हैं, ऐसा मेरा मत हैं। तुम तो चन्द्र-मुखी हो तथा शिव के पञ्च मुख हैं, तुम्हारे नेत्र कमल के सामान हैं तथा शिव की भद्दी एवं बड़ी-बड़ी, तुम्हारे शरीर में उत्तम चन्दन का अंगराग होगा और शिव के अंग में चिता भस्म। तुम्हारे शरीर में उत्तम साड़ी हैं और कहाँ शिव के शरीर में मृत पशु के चर्म। तुम्हारे अंग में दिव्य आभूषण तथा कहाँ शिव के शरीर में सर्प, कहाँ तुम्हारे अनगिनत सेवक तथा शिव के संग भयंकर भयभीत करने वाले भूत-प्रेत, तुम्हारा यह उत्तम रूप शिव के योग्य कदापि नहीं हैं। यदि उनके पास धन होता तो वे नंगे क्यों रहते? सवारी उनकी बैल ही क्यों हैं? और साथ ही कोई दूसरी सामग्री भी नहीं हैं, विवाह देने योग्य वर जैसे उनमें कोई गुण ही नहीं हैं। काम को भी उन्होंने भस्म कर दिया हैं, संभवतः तुमने तुम्हारे प्रति आदर या अनादर यह तो देख ही लिया होगा, तुम्हारा त्याग कर वे अन्यत्र चले गए हैं। उनकी कोई जाती नहीं हैं, विद्या तथा ज्ञान का भी लोप हैं उनमें, पिशाच ही उनके सहायक हैं, वे सर्वदा ही अकेले रहने वाले तथा विरक्त हैं, तुम्हें अपने मन को उनके संग नहीं जोड़ना चाहिये।”
यह सब सुन पार्वती शिव निंदा करने वाले पर कुपित हो गई और बोलीं, “अब तक तो मैंने समझा था कि कोई ज्ञानी
महात्मा का मेरे आश्रम में आगमन हुआ हैं, अब तो आपकी कलई खुल
गयी हैं, आपसे मैं क्या कहूँ आप तो अवध्य ब्राह्मण
हैं। आपने जो कुछ कहाँ हैं वह सब मुझे ज्ञात हैं। आप शिव को जानते ही नहीं, नहीं तो आप इस तरह के निराधार बुद्धि-विरुद्ध बातें नहीं करते, कभी-कभी महेश्वर लीला वश अद्भुत भेष धारण करते हैं, वे साक्षात पर-ब्रह्म हैं। आप ब्राह्मण का भेष धारण
कर मुझे ठगने हेतु उद्धत हो, अनुचित तथा असंगत
युक्तियों का सहारा लेकर, छल-कपट युक्त बातें बोल
रहें हैं तथा कहते हैं कि मैं भगवान शिव के स्वरूप को भली प्रकार से जानती हूँ।” ऐसा कहकर पार्वती चुप हो गई, और निर्विकार चित से भगवान शिव का ध्यान करने लगी।
पार्वती की इस प्रकार बात
सुनकर जैसे ही ब्राह्मण कुछ कहने हेतु उद्धत हुआ, वैसे ही शिव निंदा न सुनने की इच्छा से उन्होंने अपनी सखी से कहा! “इस अधम ब्राह्मण को यत्न-पूर्वक रोको, यह केवल शिव की निंदा ही करेगा, जो उनकी निंदा सुनता
हैं वह भी पाप का भागी होता हैं। ब्राह्मण होने के कारण इसका वध करना उचित नहीं
हैं, अतः इसका त्याग कर देना चाहिये। इस स्थान का त्याग कर
हम किसी और स्थान पर चेले जायेंगे, जिससे भविष्य में इसका
पुनः मुंह न देखना पड़े।”
जैसे ही पार्वती अन्यत्र जाने हेतु उठी, भगवान शिव ने साक्षात् रूप में उनके सनमुख प्रकट होकर उनका हाथ पकड़ लिया। इस पर पार्वती ने लज्जा वश अपना मुंह नीचे कर लिया। भगवान शिव, पार्वती से बोले, “मुझे छोड़ कर कहा जाओगी? मैं प्रसन्न हूं वर मांगो, आज से मैं तपस्या के मोल से ख़रीदा हुआ तुम्हारा दास हूँ। तुम तो मेरी सनातन पत्नी हो, तुम्हारे सौन्दर्य ने मुझे मोह लिया हैं। मैंने नाना प्रकार से तुम्हारी परीक्षा ली हैं, लोक लीला का अनुसरण करने वाले मुझ स्वजन को क्षमा कर दो, मैं सर्वथा तुम्हारे अधीन हूँ। तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, तुम मेरी पत्नी हो और मैं तुम्हारा वर।” इस प्रकार भगवान शिव के वचनों को सुनकर पार्वती आनंद मग्न हो गई, उनका समस्त कष्ट मिट गया, सारी थकावट दूर हो गयी। ” भगवान शिव के स्वरूप का दर्शन कर पार्वती को बड़ा ही हर्ष हुआ, उनका मुख प्रसन्नता से खिल गया।
पार्वती ने भगवान शिव से कहा! “आप मेरे स्वामी हैं, पूर्वकाल में आपने जिसके हेतु दक्ष के यज्ञ का विध्वंस किया था, उसे कैसे भुला दिया? मैं वही सती हूँ तथा आप वही शिव हैं, यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे पत्नी
रूप में स्वीकार करें। आप मेरे पिता के पास जाकर याचक बनाकर, उनसे मेरी याचना करें तथा मेरे गृहस्थ आश्रम को सफल
करें। मेरे पिता हिमवान यह भली प्रकार से जानते हैं कि उनकी पुत्री शिव को पति रूप में प्राप्त करने हेतु कठोर
तप कर रहीं हैं।” पार्वती की बात सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए तथा कहा “मैं स्वतंत्र हूँ, परन्तु मुझे परतंत्र
बना दिया गया हैं, समस्त कर्मों को करने
वाली प्रकृति एवं महा-माया तुम्ही हो तथा यह चराचर जगत तुम्हारे द्वारा ही रचा गया हैं। तुम्हीं सत्व-रज-तमो गुणमयी त्रिगुणात्मिका सूक्ष्म प्रकृति हो, सदा निर्गुण तथा सगुन
भी हो, मैं यहाँ सम्पूर्ण भूतों का आत्मा, निर्विकार और निरीह हूँ। केवल भक्तों की इच्छा से
मैंने शरीर धारण किया हैं, मैं भिक्षुक होकर
तुम्हारे पिता हिमवान के समक्ष जाकर तुम्हारी याचना नहीं कर सकता हूँ। तुम
जो भी चाहो वह मुझे करना ही हैं, अब तुम्हारी जैसे
इच्छा हो, वैसा करो।”
पार्वती ने कहा! “नाथ आप आत्मा हैं और मैं प्रकृति हूँ, यह सत्य ही हैं। आप मेरे हेतु याचना करें तथा मेरे
पिता को दाता बनने का सौभाग्य प्रदान करें, आप मुझ पर कृपा करें। आप परब्रम्ह परमात्मा, निर्गुण, प्रकृति से परे, निर्विकार, निरीह तथा स्वतंत्र
हैं, परन्तु भक्तों के उद्धार हेतु आप सगुन भी हो जाते
हैं।” ऐसा कहकर देवी पार्वती हाथ जोड़कर शिव जी के सामने खड़ी हो गई !
इस पर उन्होंने हिमवान के पास याचक बनना स्वीकार कर लिया तथा वहां से
अंतर्ध्यान होकर कैलाश चले गए। वहां जाकर उन्होंने नंदी आदि गणो को सारा वृतांत सुनाया, जिसे सुनकर वहां सभी बहुत प्रसन्न हुए।
इसके पश्चात पार्वती अपने सखियों के साथ अपने पिता हिमवान के पास चली गई, जिसके कारण उनके माता-पिता एवं भाइयों को बड़ा ही हर्ष
हुआ। एक दिन जब गिरिराज गंगा स्नान हेतु गए, भगवान शिव एक नाचने वाले भिक्षुक नट रूप में मैना के सामने गए, उन्होंने दाहिने हाथ में सींग तथा बाएं हाथ में डमरू
ले रखा था। उन्होंने नाना प्रकार के नृत्य किये तथा मनोहर गीत का भी गान किया, डमरू-शंख बजाय, नाना प्रकार की मनोहर लीला की। उनके गीत को सुनने वहां सभी नगर-वासी आयें
तथा मोहित हुए, मैना भी मोहित हुई, उधर उन्होंने पार्वती के हृदय में साक्षात् दर्शन भी दिया। मैना ने उन्हें
प्रसन्नतापूर्वक नाना रत्न इत्यादि प्रदान की, परन्तु भगवान शिव ने स्वीकार नहीं किया; वे भिक्षा में उनकी
पुत्री को मांगने लगे तथा और अधिक सुन्दर नृत्य, गान करने लगे। इसपर मैना बहुत क्रोधित हुई तथा उन्हें डांटने-फटकारने लगी।
इतने में हिमवान स्नान कर वापस आयें तथा आँगन में उस नट को देखा, मैना की बातें सुनकर उन्हें बड़ा ही क्रोध आया। उन्होंने अपने सेवकों को
आज्ञा दी की वह उस नट को बहार निकाल दे, परन्तु उन्होंने कोई
भी बाहर नहीं निकाल सका। तदनंतर, नाना प्रकार की लीलाओं
में विशारद उन भगवान शिव ने भिक्षुक रूप में हिमवान को अपना प्रभाव दिखाना प्रारंभ किया। उस समय हिमवान ने देखा की वह भिक्षुक
एक क्षण में ही भगवान विष्णु के रूप में परिणति हो गए, इसके पश्चात उन्होंने उस भिक्षुक को जगत सृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी के रूप में देखा, इसके पश्चात सूर्य के रूप में देखा। इसके
पश्चात रुद्र के रूप में प्रकट हुए जिसके साथ पार्वती भी थीं। इस तरह हिमवान ने उस नट में बहुत से
रूप दिखे, जिससे उन्हें बड़ा ही विस्मय हुआ, तदनंतर, भगवान शिव ने पार्वती को भिक्षा के रूप में माँगा। परन्तु, हिमवान ने नट के प्रार्थना को
स्वीकार नहीं किया, उन्होंने भी और कोई
वास्तु स्वीकार नहीं की और अंततः वहां से अंतर्ध्यान हो गए। हिमवान तथा मैना को ज्ञान हुआ की भगवान शिव ही उन्हें माया से मोहित कर अपने स्थान को चले गए, तदनंतर दोनों शिव के परम भक्ति में लीन हो गए।
मैना तथा हिमवान की परम भक्ति को देखकर बृहस्पति तथा ब्रह्मा जी इत्यादि समस्त देवता शिव जी के पास गए तथा उन्हें प्रणाम कर मैना तथा हिमवान की शिव भक्ति के विषय में बताया, साथ ही उनसे निवेदन किया कि वे पार्वती का पाणिग्रहण शीघ्र
करें। भगवान शिव ने सभी देवताओं को
आश्वासन देकर विदा किया, देवता भी समझ गए कि
उनकी विपत्ति बहुत ही शीघ्र ही समाप्त होने वाली हैं तथा वे अपने-अपने निवास स्थान
को लौट गए।
एक दिन भगवान शिव, हाथ में दंड, छत्र, दिव्य वस्त्र धारण कर हिमवान के पास गए, वे ललाट में उज्ज्वल तिलक, हाथ में स्फटिक माला तथा गले में शाल-ग्राम धारण किये हुए, साधु वेश धारी ब्राह्मण जैसे प्रतीत हो रहें थे।
उन्हें देखकर हिमवान ने आदरपूर्वक उनका सत्कार किया, पार्वती उन्हें देखकर ही पहचान
गई थीं की वे शिव हैं। गिरिराज ने उनका कुशल-समाचार पूछा! ब्राह्मण ने बताया की वह उत्तम वैष्णव
विद्वान-ब्राह्मण हैं तथा ज्योतिष वृत्ति का आश्रय लेकर भूतल पर भ्रमण करते हैं।
गुरु द्वारा प्रदत्त शक्ति युक्त हो वे सर्वत्र जाने में समर्थ हैं, परोपकारी, शुद्धात्मा, दया के सागर तथा विकार नाशक हैं।
ब्राह्मण ने हिमवान तथा मैना से कहा, "उन्हें यह ज्ञात हुआ
हैं की हिमवान अपने सुलक्षणा पुत्री को आश्रय रहित, असंग, कुरूप और गुणहीन महादेव के हाथों में प्रदान
करना चाहते हैं। वे तो मरघट में वास करते हैं, देह में सांप लपेटे रहते हैं और योग साधते फिरते हैं, उनके पास वस्त्र तो हैं ही नहीं, नंग-धड़ंग घूमते रहते हैं। उनके कुल का किसी को ज्ञात
नहीं हैं, कुपात्र और कुशील हैं, स्वभावतः विहार से दूर रहते हैं, शरीर में भस्म रमते हैं, क्रोधी और अविवेकी हैं। जटा का बोझ मस्तक में धारण किये रहते हैं, भूत-प्रेत इत्यादि को आश्रय देते हैं, भ्रमणशील, भिक्षुक, कुमार्ग-परायण तथा हठपूर्वक वैदिक मार्ग का त्याग
करने वाले हैं। ऐसे अयोग्य वर को आप अपनी पुत्री क्यों प्रदान करना चाहते हैं? आपका यह विचार मंगल दायक नहीं हो सकता हैं। आप नारायण के कुल में उत्पन्न
हैं, शिव इस योग्य नहीं हैं कि
उसके हाथ में पार्वती को दिया जाये, वे सर्वथा निर्धन हैं।" ऐसा कहकर वे ब्राह्मण
देवता खा-पीकर वहां से आनंदपूर्वक चले गए।
ब्राह्मण के विचारों का मैना के ऊपर बड़ा ही प्रभाव पड़ा, दुःखी होकर उन्होंने हिमवान से कहा “यह सब सुनकर मेरा मन शिव के प्रति बहुत खिन्न एवं विरक्त हो गया
हैं। रुद्र के रूप में शील और नाम
सभी कुत्सित हैं, मैं उन्हें अपनी कन्या
नहीं दूंगी, आप यदि मेरी बात नहीं माने तो मैं मर
जाऊंगी। पार्वती के गले में फांसी लगाकर या उसे सागर में डुबोकर, गहन वन में चली जाऊंगी, परन्तु पार्वती का विवाह इस वर के साथ
नहीं करूँगी।” भगवान शिव को जब यह ज्ञात हुआ, उन्होंने अरुंधती सहित सप्त-ऋषियों को बुलवाया तथा मैना को समझाने की
आज्ञा दी।
भगवान शिव की आज्ञा अनुसार सप्त-ऋषि गण, हिमवान के घर पधारें, उनके नगर की ऐश्वर्य को देखकर वे उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करने लगे। हिमवान ने सप्त-ऋषियों को देख आदर के साथ हाथ जोड़कर, मस्तक झुका कर
उन्होंने प्रणाम किया, इसके पश्चात बड़े
सम्मान के साथ उनकी पूजा की। हिमवान ने उन्हें उत्तम आसनों पर बैठाया तथा उनसे उनके गृह
में आगमन का कारण पूछा। ऋषि-गण बोले! “भगवान शिव जगत के पिता हैं और शिवा (पार्वती) जगन्माता हैं, तुम्हें शिव जी को अपनी कन्या का दान करना चाहिये, इससे तुम्हारा जन्म सफल जो जायेगा।” इस पर हिमालय बोले “वह इस परम तथ्य के
ज्ञाता थे, उन्होंने मन-आत्मा से इसे स्वीकार कर रखा
था। परन्तु एक वैष्णव वृत्ति के ब्राह्मण ने आकर बहुत सी बातें कहीं, तभी से मैना का ज्ञान भ्रष्ट हो गया हैं। वे भारी हठ कर, मैले वस्त्र धारण कर अत्यंत कोप कर बैठीं हैं, और किसी के समझाने पर भी नहीं समझ रही हैं। वैष्णव
ब्राह्मण की बातें सुनकर अब भिक्षुक रूप-धारी शिव को, मैं अपनी पुत्री का
दान नहीं करना चाहता।” ऋषियों से ऐसा कहकर हिमवान चुप हो गए।
ऋषि-गणो ने अरुंधती को मैना के पास भेजा; देवी अरुंधती ने पार्वती तथा मैना को एक साथ देखा। मैना शोक से व्याकुल हो पृथ्वी पर पड़ी थी, तदनंतर अरुंधती देवी ने सावधानी के साथ मधुर तथा हितकर बातें कही “मैं अरुंधती तथा सप्त-ऋषि
गण तुम्हारे गृह में पधारे हैं, उठो।” यह सुन मैना उठी और मस्तक झुका कर
बोलीं “आप किस हेतु यहाँ आई हैं? आज मेरा जन्म सफल हो गया जो ब्रह्मा जी की पुत्र वधु मेरे घर पर आई हैं। मैं आपकी दासी के
सामान हूँ, आप आज्ञा दे।” अरुंधती ने उन्होंने बहुत
अच्छी तरह समझाया-बुझाया तथा अपने साथ लेकर उस स्थान पर आयी, जहाँ पर सप्त-ऋषि गण विराजमान थे। तदनंतर, वार्तालाप में निपुण सप्त-ऋषियों ने हिमवान
तथा मैना को समझाना प्रारंभ किया ! “हमारे शुभ कारक वचन सुनो! तुम पार्वती का विवाह शिव के संग
करो तथा संहारकर्ता शिव के श्वसुर बनो। वे सर्वेश्वर हैं, वे किसी से याचना नहीं
करते हैं, स्वयं ब्रह्मा
जी ने तारकासुर के वध हेतु भगवान शिव से विवाह करने की प्रार्थना की हैं। वे विवाह हेतु उत्सुक नहीं हैं, वे तो योगियों के शिरोमणि हैं केवल ब्रह्मा जी के प्रार्थना के कारण
वे पार्वती से विवाह करना चाहते
हैं। तुम्हारी पुत्री ने भी उन्हें ही वर रूप में प्राप्त करने हेतु बहुत कठोर तप
किया तथा भगवान शिव को प्रसन्न किया।”
इस प्रकार ऋषियों की बातें सुनकर हिमवान हंस पड़े और भयभीत हो विनयपूर्वक बोले “मैं शिव के पास कोई राजोचित सामग्री नहीं देखता हूँ, न ही उनका भवन हैं और न ही ऐश्वर्य, न ही बंधु-बांधव और न ही कोई स्वजन। मैं अत्यंत निर्लिप्त योगी को अपनी
पुत्री नहीं देना चाहता हूँ, आप लोग वेद-विधाता ब्रह्मा जी के पुत्र हैं, आप ही निश्चय कर कहिये; जो पिता अपात्र को लोभ-मोह वश अपनी कन्या देता हैं, वह नरक में जाता हैं। अतः मैं स्वेच्छा से शिव को अपनी कन्या नहीं दूंगा, इस हेतु जो उचित विधान हो, उसे आप लोग
करें।"
इस पर वशिष्ठ मुनि ने हिमालय से कहा, “तुम्हारे लिए हितकारक, धर्म के अनुकूल, सत्य तथा इहलोक और परलोक में सुख कारक वचन कहता हूँ सुनो! लोक तथा वेदों में तीन प्रकार के वचन उपलब्ध होते हैं, एक तो वह वचन हैं जो तत्काल सुनने में बड़ा ही प्रिय लगता हैं, परन्तु पीछे वह बड़ा ही असत्य तथा अहितकारी होता हैं। दूसरा वह हैं जो आरंभ में बुरा लगता हैं, परन्तु परिणाम में वह सुख-प्रदायी होता हैं। तीसरा वचन, सुनते ही अमृत के सामान लगता हैं और सभी कालों में सुख देने वाला होता हैं, सत्य ही उसका सार होता हैं। ऐसा वचन सर्वाधिक श्रेष्ठ तथा सभी के लिए अभीष्ट हैं, इन तीनों में से कौन सा वचन तुम्हारे हेतु सर्वश्रेष्ठ हैं बताओ, मैं तुम्हारे निमित्त वैसा ही वचन कहूँगा।
भगवान शिव सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी हैं, उनके पास वाह्य संपत्ति नहीं हैं, सर्वदा ही उनका चित्त ज्ञान के महासागर में मग्न रहता हैं, वे सबके ईश्वर हैं। उन्हें लौकिक तथा वाह्य वस्तुओं की क्या आवश्यकता हैं? किसी दीन-दुःखी को कन्या दान करने से पिता कन्या घाती होता हैं, धन-पति कुबेर जिनके किंकर हैं, जो अपनी लीलामात्र से संसार की सृष्टि तथा संहार करने में समर्थ हैं, जिन्हें गुणातीत, परमात्मा और प्रकृति से परे परमेश्वर कहा गया हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र रूप धारण करते हैं, उन्हें कौन निर्धन तथा दुःखी कह सकता हैं? ब्रह्म लोक में निवास करने वाले ब्रह्मा तथा क्षीर सागर में शेष नाग की शय्या पर शयन करने वाले विष्णु तथा कैलाश वासी रुद्र, यह सभी भगवान शिव की ही विभूतियाँ हैं। पार्वती कल्पान्तर में दक्ष पुत्री 'सती' नाम से विख्यात थीं तथा रुद्र को इन्होंने ही पति रूप में प्राप्त किया था, दक्ष ने स्वयं उन्हें अपनी कन्या का दान किया था। वही दक्ष कन्या, सती अब तुम्हारे घर में प्रकट हुई हैं, वे जन्म-जन्मान्तर में शिव की ही पत्नी होती हैं। भगवान शिव, सती के चिता भस्म को ही प्रेम-पूर्वक अपने शरीर में धारण किये रहते हैं, तुम्हें स्वेच्छा से अपनी पुत्री को भगवान शिव के हाथों में अर्पण करना चाहिए। तुम्हारी पुत्री के प्रार्थना करने के कारण ही भगवान शिव तुम्हारे पास याचना करने आयें थे तथा तुम दोनों ने शिव भक्ति में मन लगाकर उस याचना को स्वीकार कर लिया था। ऐसा क्या हुआ की तुम्हारी बुद्धि विपरीत हो गई हैं?”
नाना प्रकार से वशिष्ठ जी ने हिमवान तथा मैना को नाना प्रकार से समझाया कि वे अपनी कन्या पार्वती का विवाह शिव के साथ कर दे तथा चुप हो गए।
हिमवान ने मेरु, सह्य, गंधमादन, मंदराचल, मैयाक, विन्ध्याचल इत्यादि पर्वतों से निवेदन किया कि वशिष्ठ जी ऐसा कह रहे हैं; आप लोग मन से उचित-अनुचित का निर्णय कर उनका
मार्गदर्शन करें। इस प्रकार हिमवान की प्रार्थना पर सभी पर्वतों ने कहा, “इसमें निर्णय करने हेतु कुछ नहीं हैं, जैसा ऋषि गण कहते हैं वैसा ही कार्य करना चाहिये। यह
कन्या पूर्व जन्म की सती हैं तथा देवताओं के कार्य सिद्धि हेतु इन्होंने आपके घर में जन्म धारण किया
हैं, यह साक्षात शिव की ही पत्नी हैं।” यह बात सुनकर मैना और हिमालय मन ही मन प्रसन्न हुए, अरुंधती ने भी विविध प्रकार के इतिहास का वर्णन कर मैना को समझाया, जिससे दोनों पति-पत्नी का भ्रम दूर हो गया। तदनंतर
दोनों ने हाथ जोड़कर ऋषियों से कहा कि उनकी कन्या भगवान रुद्र का ही भाग हैं तथा
उन्होंने उन्हें ही देने का निश्चय किया।
गिरिराज हिमवान ने उत्तम मांगलिक
कार्य हेतु, विवाह लग्न का सप्त-ऋषियों से विचार कराकर, उन्हें विदा किया। सप्त-ऋषि गण, भगवान शिव के पास गए और उन्हें अवगत करवाया की हिमवान ने पार्वती का वाग्दान कर दिया
हैं, अब आप पार्षदों तथा देवताओं के साथ विवाह हेतु
प्रस्थान करें तथा वेदोक्त रीति के अनुसार पार्वती का पाणिग्रहण करें।
यह सुनकर भगवान शिव प्रसन्न हो गए तथा ऋषियों से बोले “विवाह के विषय में मैं कुछ नहीं जनता हूँ, आप लोग जैसा उचित समझे वैसा करें।” ऋषियों ने उन्हें भगवान विष्णु को उनके पार्षदों सहित, इंद्र, समस्त ऋषियों, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर इत्यादि को बुलवा लेने
हेतु कहा, जो उनके विवाह के कार्य को साध लेंगे। यह
कहकर सभी सप्त-ऋषि अपने धाम में चले गए।
वहां हिमवान ने अपने बन्धु-बांधवों को आमंत्रित कर, अपने पुरोहित गर्ग जी से बड़े हर्ष के साथ लग्न पत्रिका लिखवाई तथा उस पत्र
को उन्होंने भगवान शिव के पास भेजा। हिमवान ने नाना देशों में
रहने वाले स्वजनों तथा बंधुओं को लिखित निमंत्रण भेजा। इसके पश्चात वे नाना प्रकार
के विवाह सामग्रियों का संयोग करने में लग गए, सभी आगंतुकों हेतु नाना प्रकार के व्यंजन निर्माण का कार्य प्रारंभ किया
गया। हिमवान के घर की स्त्रियों ने पार्वती का संस्कार करवाया, नाना प्रकार के आभूषणों से उन्हें सजाया, मांगलिक उत्सवों का आयोजन किया गया। हिमालय-राज के घर निमंत्रित
अतिथियों का आना प्रारंभ हो गया तथा नाना प्रकार के उत्सव होने लगे। इस शुभ अवसर
पर हिमवान ने अपने भवन के साथ
सम्पूर्ण नगर में मनोरम सजावट की तथा विश्वकर्मा से दिव्य मंडप और भवनों का
निर्माण करवाया।
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्
शिवं केवलं भासकं भासकानाम्
तुरीयं तमःपारमाद्यन्तहीनं
प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्
हे अजन्मे (अनादि), आप
शाश्वत हैं, नित्य
हैं, कारणों
के भी कारण हैं। हे कल्यानमुर्ति (शिव) आप ही एक मात्र प्रकाशकों
को भी प्रकाश प्रदान करने वाले हैं। आप
तीनो अवस्ताओं से परे हैं। हे आनादि, अनंत
आप जो कि अज्ञान से परे हैं, आपके
उस परम् पावन अद्वैत स्वरूप को नमस्कार है।
भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह
जगत् के सभी छोटे बड़े पर्वत, वन, समुद्र, नदियाँ तालाब आदि हिमाचल का निमन्त्रण पाकर इच्छानुसार रूप धारण कर उस विवाह में सम्मिलित थे। हिमाचल के नगर को सुन्दरतापूर्वक सजाया गया था।
हिमवान के घर से भगवान शिव को लग्न पत्रिका भेजी
गई, जिसे उन्होंने विधिपूर्वक बांच कर हर्ष के साथ
स्वीकार किया तथा लग्न-पत्रिका लाने वालों का यथोचित आदर-सम्मान कर, उन्हें विदा किया। तदनंतर, शिव जी ने ऋषियों से कहा कि, "आप लोगों ने उनके कार्य का भली प्रकार से संपादन किया, अब उन्होंने विवाह स्वीकार कर लिया हैं, अतः सभी को विवाह में चलना चाहिये।" तदनंतर, भगवान शिव ने नारद जी का स्मरण किया, जिस कारण वे तक्षण ही वहां उपस्थित हुए। भगवान शिव ने उनसे कहा, “नारद! तुम्हारे उपदेश से ही पार्वती ने कठोर तपस्या कर मुझे संतुष्ट किया हैं तथा मैंने
उनका पति रूप से पाणिग्रहण करने का निश्चय किया। सप्त-ऋषियों ने लग्न का साधन और
शोधन कर दिया हैं, आज से सातवें दिन मेरा
विवाह हैं। इस अवसर पर मैं लौकिक रीति का आश्रय लेकर महान उत्सव करूँगा, तुम भगवान विष्णु आदि सब देवताओं, मुनियों, सिद्धों तथा अन्य
लोगों को मेरे ओर से निमंत्रित करो।" भगवान शिव की आज्ञानुसार नारद जी ने तीनों लोकों में
सभी को शिव-विवाह का निमंत्रण दिया तथा अंततः कैलाश पर लौट आयें।
सप्तर्षियों ने हिमाचल के घर जाकर शिव जी और पार्वती के विवाह के लिये वेद की विधि के अनुसार शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी का निश्चय कर लग्नपत्रिका तैयार कर ब्रह्मा जी के पास पहुँचा दिया। शिव जी के विवाह की सूचना पाकर समस्त देवता अपने विमानों में आरूढ़ होकर शिव जी के यहाँ पहुँच गये।
शिव जी के गणों ने शिव जी की जटाओं का मुकुट बनाकर और सर्पों के मौर, कुण्डल, कंकण उनका श्रृंगार किया और वस्त्र के स्थान पर बाघम्बर लपेट दिया। तीन नेत्रों वाले शिव जी के सुन्दर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगा जी, गले में विष और वक्ष पर नरमुण्डों की माला शोभा दे रही थी। उनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरू सुशोभित थे।
चंडीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे। वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं।
धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए। उस देवमंडली के बीच में भगवान श्री विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे। पितामह ब्रह्माजी भी उनके पास में मूर्तिमान्वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकाद महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे।
देवराज इंद्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे। सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे। तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी शिवजी की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँच गए थे। इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देवकन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई थीं। इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान शंकरजी अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर वृषभ पर सवार हुए। दूल्हे के वेश में शिवजी की शोभा निराली ही छटक रही थी। इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे।
शिव जी बैल पर चढ़ कर चले। बाजे बज रहे
थे। देवांगनाएँ उन्हें देख कर मुस्कुरा रही थीं और विनोद पूर्वक कह रही थीं कि इस
वर के योग्य दुलहिन संसार में शायद ही हो। ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त देवताओं के साथ ही साथ शिव जी के समस्त गण भी बाराती थे।
उनके गणों में कोई बिना मुख का था तो किसी के अनेक मुख थे, कोई बिना हाथ पैर का था तो किसी के कई हाथ पैर थे, किसी की एक भी आँख नहीं थी तो किसी के बहुत सारी आँखें थीं, कोई पवित्र वेष धारण किये था तो कोई बहुत ही अपवित्र
वेष धारण किया हुआ था। सब मिला कर प्रेत, पिशाच और योगनियों की
जमात चली जा रही थी बारात के रूप में।
इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे। इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे। वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए शंकरजी के चारों ओर एकत्रित हो गए।
गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े।
नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म लगी हुई थी।
इन गणों के साथ शंकरजी के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई।
भगवान शिव के सभी गण भारी उत्सव माना रहें थे, भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी जी के साथ आपने पार्षदों सहित, साथ ही ब्रह्मा जी अपने गणो के साथ कैलाश पर आयें। समस्त लोकपाल भी अपनी पत्नियों के साथ सज-धज कर कैलाश पर आयें; मुनि, नाग, सिद्ध, उप-देवता तथा अन्य लोग भी कैलाश पर गए तथा शिव-गणो के साथ उत्सव मनाने लगे। भगवान शिव ने अपने स्वाभाविक भेष के अनुसार ही नाना आभूषणों को धारण किया, उनका स्वरूप बड़ा ही आकर्षक था। कैलाश पर उपस्थित सभी उनके विवाह में जाने हेतु तैयार हुए, भगवान विष्णु ने शिव जी से कहा! “गृह-सुत्रोक्त विधि के अनुसार आप पार्वती से विवाह करें, जिससे यह विधि लोक-विख्यात हो जाये तथा अपने कुलधर्म के अनुसार मंडप-स्थापन एवं नंदी-मुख श्राद्ध भी करें।” भगवान विष्णु के कथन अनुसार शिव जी ने विधिपूर्वक समस्त कार्य किये, उनके समस्त कार्य स्वयं ब्रह्मा जी तथा उनके नाना महर्षि पुत्र आभ्युदयिक करने लगे। सभी ऋषियों ने बड़े हर्ष के साथ बहुत से मांगलिक कार्य किये, विघ्नों के शांति हेतु ग्रहों और समस्त मंडलवर्ती देवताओं का पूजन किया गया। समस्त प्रकार के लौकिक, वैदिक कर्म यथोचित रीति से कर भगवान शिव बहुत संतुष्ट हुए, तदनंतर वे ऋषियों तथा देवताओं को आगे कर कैलाश से हिमवान के घर जाने हेतु निकले। उन्होंने अपने कुछ गणो को कैलाश पर ही ठहरने तथा बाकी गणो को हिमालय की नगरी की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया।
भगवान शिव के सभी गण भारी उत्सव माना रहें थे, भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी जी के साथ आपने पार्षदों सहित, साथ ही ब्रह्मा जी अपने गणो के साथ कैलाश पर आयें। समस्त लोकपाल भी अपनी पत्नियों के साथ सज-धज कर कैलाश पर आयें; मुनि, नाग, सिद्ध, उप-देवता तथा अन्य लोग भी कैलाश पर गए तथा शिव-गणो के साथ उत्सव मनाने लगे। भगवान शिव ने अपने स्वाभाविक भेष के अनुसार ही नाना आभूषणों को धारण किया, उनका स्वरूप बड़ा ही आकर्षक था। कैलाश पर उपस्थित सभी उनके विवाह में जाने हेतु तैयार हुए, भगवान विष्णु ने शिव जी से कहा! “गृह-सुत्रोक्त विधि के अनुसार आप पार्वती से विवाह करें, जिससे यह विधि लोक-विख्यात हो जाये तथा अपने कुलधर्म के अनुसार मंडप-स्थापन एवं नंदी-मुख श्राद्ध भी करें।” भगवान विष्णु के कथन अनुसार शिव जी ने विधिपूर्वक समस्त कार्य किये, उनके समस्त कार्य स्वयं ब्रह्मा जी तथा उनके नाना महर्षि पुत्र आभ्युदयिक करने लगे। सभी ऋषियों ने बड़े हर्ष के साथ बहुत से मांगलिक कार्य किये, विघ्नों के शांति हेतु ग्रहों और समस्त मंडलवर्ती देवताओं का पूजन किया गया। समस्त प्रकार के लौकिक, वैदिक कर्म यथोचित रीति से कर भगवान शिव बहुत संतुष्ट हुए, तदनंतर वे ऋषियों तथा देवताओं को आगे कर कैलाश से हिमवान के घर जाने हेतु निकले। उन्होंने अपने कुछ गणो को कैलाश पर ही ठहरने तथा बाकी गणो को हिमालय की नगरी की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया।
अपने स्वामी द्वारा आदेश पाकर, सभी प्रमथ इत्यादि गण, भूत-प्रेतों के संग महान उत्सव करते हुए चले। नंदी, भैरव एवं क्षेत्रपाल असंख्य गणो के साथ भारी उत्सव मानते हुए चले, वे सभी अनेक हाथों से युक्त थे, सर पर जटा, उत्तम भस्म तथा
रुद्राक्ष इत्यादि आभूषण धारण किये हुए थे। चंडी देवी, रुद्र के बहन रूप में उत्सव मानते हुए माथे पर सोने का कलश
धारण किये हुई थीं, वे अपने वाहन प्रेत पर
आरूढ़ थीं। उस समय डमरुओं के घोष, भेरियों की गड़गड़ाहट
तथा शंख-नाद से तीनों लोक गूंज उठा था, दुन्दुभियों की ध्वनि
से महान कोलाहल हो रहा था। समस्त देवता, शिव गणो के पीछे रहकर
बरात का अनुसरण कर रहें थे, समस्त लोकपाल तथा
सिद्ध-गण भी उन्हीं के साथ थे। देवताओं के मध्य में गरुड़ पर विराज-कर भगवान विष्णु चल रहें थे, उनके पार्षदों ने उन्हें नाना आभूषणों से विभूषित
किया था, साथ ही ब्रह्मा
जी भी वेद-पुराणों के साथ थे। शाकिनी, यातुधान, बेताल, ब्रह्म-राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रमथ, गन्धर्व, किन्नर बड़े हर्ष के
साथ नाना प्रकार की ध्वनि करने हुए चल रहें थे। देव-कन्याएँ, जगन्माताऍ तथा अन्य देवांगनाएँ बड़ी प्रसन्नता के साथ शिव जी के विवाह में सम्मिलित
होने हेतु आयें थे।
सर्वप्रथम शिव जी ने नारद जी को हिमालय के घर भेजा, वे वहां की सजावट
देखकर दांग रह गए। देवताओं, अन्य लोगों तथा अपने
गणो सहित भगवान शिव हिमालय के नगर के समीप
आयें, हिमालय ने नाना पर्वतों तथा ब्राह्मणों को उनसे
वार्तालाप करने तथा अगवानी हेतु भेजा। समस्त देवताओं को भगवान शिव के बरात में देखकर हिमालय-राज को बड़ा ही विस्मय हुआ
तथा वे अपने आप को धन्य मानने लगे। शिव जी को अपने सामने देखकर हिमवान ने उन्हें प्रणाम किया, साथ ही पर्वतों तथा ब्राह्मणों ने भी उनकी वंदना की। शिव जीअपने वाहन वृषभ पर आरूढ़ थे, उनके बाएं भाग में भगवान
विष्णु तथा दाहिने भाग में ब्रह्मा जी थे। हिमवान ने अन्य सभी देवताओं
को भी मस्तक झुकाया, तत्पश्चात शिव जी की आज्ञा से वे सभी को
अपने नगर में ले गए।
भगवान शिव का भेष बड़ा ही निराला हैं, समस्त प्रकार के विस्मित कर देने वाले तत्व इन्हें प्रिय हैं। वे अद्भुत वर के रूप में सज-धज कर अपनी बारात ले हिमालय राज के घर गए थे; ये वृषभ पर आरूढ़ थे, शरीर में चिता भस्म लगाये हुए, पांच मस्तको से युक्त थे, बाघाम्बर एवं गज चर्म इन्होंने वस्त्र के रूप में धारण कर रखा था। आभूषण के रूप में हड्डियों, मानव खोपड़ियों तथा रुद्राक्ष की माला शरीर में धारण किये हुए थे, अपने दस हाथों में खप्पर, पिनाक, त्रिशूल, डमरू, धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए थे। साथ ही इनके संग आने वाले समस्त बाराती या गण भूत-प्रेत, बेताल इत्यादि भयंकर भय-भीत कर देने वाले अद्भुत रूप में थे। मर्मर नाद करते हुए, बवंडर के समान, टेढें-मेढें मुंह तथा शरीर वाले अत्यंत कुरूप, लंगड़े-लूले-अंधे, दंड, पाश, मुद्गर, हड्डियाँ, धारण किये हुए थे। बहुत से गणो के मस्तक नहीं थे तथा किन्हीं के एक से अधिक मस्तक थे, कोई बिना हाथ के तथा उलटे हाथ वाले, बहुत से मस्तक पर कई चक्षु वाले, कुछ नेत्र हीन थे तथा कुछ एक ही चक्षु वाले थे, किसी के बहुत से कान थे और किसी के एक भी नहीं थे।
सभी बाराती जब हिमाचल नगरी के पास पहुँचे तब नारद जी ने गिरिराज हिमालय को सूचना दी। हिमवान तत्काल ही विभिन्न स्वागत सामग्रियों के साथ शिव जी का दर्शन करने चल पड़े। उन्होंने समस्त देव सम्माज को अपने यहाँ आया देख कर आनंदमग्न हो गए। उन्होंने भावविभोर होकर समस्त देवताओ का स्वागत किया। हिमराज, मन ही मन सोचने लगे कि उनसे ज्यादा भाग्यवान कोई नहीं है। उन्होंने सभी का स्वागत सत्कार किया और सभी को प्रबान कर, अपने निवास स्थान पर लौट आये।
इस अवसर पर मैना के मन में भगवान शिव के दर्शन की इच्छा हुई तथा उन्होंने नारद जी को बुलवाया तथा उनसे
कहने लगी कि! पार्वती ने जिसके हेतु कठोर तप किया, सर्वप्रथम मैं उन शिव को देखूंगी। भगवान शिव, मैना के मन के अहंकार को समझ गए थे, इस कारण उन्होंने श्री
विष्णु तथा ब्रह्मा
जी सहित समस्त देवताओं को पहले ही भवन में प्रवेश करा
दिया तथा स्वयं पीछे से आने का निश्चय किया।
इस उद्देश्य से मैना अपने भवन के ऊपर नारद जी संग गई एवं बारात को
भली प्रकार से देख रहीं थीं। प्रत्येक दल के स्वामी को देखकर मैना, नारद जी से पूछती थीं, क्या यह ही शिव हैं? तथा नारद जी उत्तर देते थे कि यह
तो शिव के सेवक हैं। मैना मन ही मन आनंद से विभोर हो सोचने लगती, जिसके सेवक इतने सुन्दर हैं उनके स्वामी पता नहीं
कितने सुन्दर होंगे। भगवान विष्णु के अद्भुत स्वरूप को देखकर मैना को लगा की "अवश्य ही वे भगवान शिव हैं, इसमें संशय नहीं हैं।" इस पर नारद जी ने कहा! “वे भी पार्वती के वर नहीं हैं, वे तो केशव श्री हरी विष्णु हैं। पार्वती के वर तो इनसे भी अधिक सुन्दर हैं, उनकी शोभा का वर्णन नहीं हो सकता हैं। इस पर मैना ने अपने आप को बहुत ही
सौभाग्यशाली मना, जिसने पार्वती को जन्म दिया, वे इस प्रकार सोच ही रहीं थी की भगवान शिव सामने आ गए। उनकी तथा
उनके गणो की भेष-भूषा तथा स्वरूप उनके अभिमान को चूर-चूर करने वाले थे, नारद जी ने भगवान शिव को इंगित कर मैना को बताया की वे ही पार्वती के पति भगवान शिव हैं।
सर्वप्रथम मैना ने भूत-प्रेतों से युक्त नाना शिव-गणो को देखा; उनमें से कितने ही बवंडर का रूप धारण किये हुए, टेढ़े-मेंढ़े मुखाकृति और मर्मर ध्वनि करने वाले थे। प्रायः सभी बहुत ही
कुरूप स्वरूप वाले थे, कुछ विकराल थे, किन्हीं का मुंह दाढ़ी-मूंछ से भरा हुआ था, बहुत से लंगड़े थे तो कई अंधे, किसी की एक से अधिक आँख थे तो किसी की एक भी नहीं, कोई बहुत हाथ तथा पैर वाले थे तो कुछ एक हाथ एवं पैर युक्त। वे सभी गण दंड, पाश तथा मुद्गर इत्यादि धारण किये हुए बारात में आयें
थे, कोई वाहन उलटे चला रहे थे, कोई सींग युक्त थे, कई डमरू तथा गोमुख
बजाते थे, कितने ही गण मस्तक विहीन थे। कुछ एक के
उलटे मुख थे तो किसी के बहुत से मुख थे, किन्हीं के बहुत सारे
कान थे, कुछ तो बहुत ही डरावने दिखने वाले थे, वे सभी अद्भुत प्रकार की भेष-भूषा धारण किये हुए थे।
वे सभी गण बड़े ही विकराल स्वरूप वाले तथा भयंकर थे, जिनकी कोई संख्या नहीं थीं। नारद जी ने उन सभी गणो को मैना को दिखाते हुए कहा, पहले आप भगवान शिव के सेवकों को देखे, तदनंतर उनके भी दर्शन
करना। परन्तु, उन असंख्य
विचित्र-कुरूप-भयंकर स्वरूप वाले भूत-प्रेतों को देखकर मैना (मैना) भय से व्याकुल हो गई।
इन्हीं गणो के बीच में भगवान शिव अपने वाहन वृषभ पर सवार थे, नारद जी ने अपनी उँगली से इंगित कर उन्हें मैना को दिखाया। उनके पञ्च
मुख थे और सभी मुख पर ३ नेत्र थे, मस्तक पर विशाल जटा
समूह था। उन्होंने शरीर में भस्म धारण कर रखा था, जो उनका मुख्य आभूषण हैं तथा दस हाथों से युक्त थे, मस्तक पर जटा-जुट और चन्द्रमा का मुकुट धारण किये हुए थे। वे अपने हाथों
में कपाल, त्रिशूल, पिनाक इत्यादि अस्त्र धारण किये हुए थे, उनकी आंखें बड़े ही भयानक दिख रहीं थीं, वे शरीर पर बाघाम्बर तथा हाथी का चर्म धारण किये हुए थे। भगवान शिव का ऐसा रूप देखकर मैना भय के मरे व्याकुल हो
गई, कांपने लगी तथा भूमि पर गिर गयी एवं मूर्छित हो गई।
वहां उपस्थित स्वजनों ने मैना की नाना प्रकार की सेवा कर उन्हें स्वस्थ किया।
जब मैना को चेत हुआ, तब वे अत्यंत क्षुब्ध
हो विलाप करने लगी तथा अपने पुत्री को दुर्वचन कहने लगी; साथ ही उन्होंने नारद मुनि को भी बहुत उलटा-सीधा सुनाया। मैना , नारद जी से बोलीं, “शिव को पति रूप में प्राप्त करने हेतु पार्वती को तपस्या करने का पथ
तुमने दिखाया, तदनंतर हिमवान को भी शिव-पूजा करने
का परामर्श दिया, इसका फल ऐसा अनर्थकारी
एवं विपरीत होगा यह मुझे ज्ञात नहीं था। दुर्बुद्धि देवर्षि ! तुमने मुझे ठग लिया
हैं, मेरी पुत्री ने ऐसा तप किया जो महान मुनियों के लिए
भी दुष्कर हैं, इसका उसे ऐसा फल मिला? यह सभी को दुःख में ही डालने वाला हैं। हाय! अब मैं
क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे जीवन का नाश हो गया हैं, मेरा कुल भ्रष्ट हो
गया हैं, वे सभी दिव्य सप्त-ऋषि कहा गए? उनकी तो मैं दाड़ी-मूँछ नोच लुंगी, वसिष्ठ जी की पत्नी भी बड़ी ही
धूर्त निकली। पता नहीं किस अपराध से मेरा सब कुछ नष्ट हो गया हैं।”
तदनंतर, वे पार्वती की ओर देखकर दुर्वचन
कहने लगी, “अरी दुष्ट ! तूने यह क्या किया? मुझे दुःखी किया हैं, तूने सोना देकर कांच का क्रय किया, चन्दन छोड़कर अपने अंगों में कीचड़ लगाया हैं। प्रकाश की लालसा में सूर्य को
छोड़कर जतन कर जुगनू को पकड़ा हैं, गंगा जल का त्याग कर
कुएं का जल पिया हैं, सिंह का सेवन छोड़कर
सियार के पास गई हैं। घर में रखी हुई यश की मंगलमयी विभूति का त्याग कर चिता की
अमंगल भस्म अपने पल्लू में बंधा हैं, तुमने सभी देवताओं को
छोड़कर, शिव को पाने के लिए इतना कठोर तप किया हैं!
तुझको धिक्कार हैं! धिक्कार हैं! तपस्या हेतु उपदेश देने वाले दुर्बुद्धि नारद तथा तेरी सखियों को
धिक्कार हैं! हम दोनों माता-पिता को धिक्कार हैं, जिसने तुझ जैसी दुष्ट कन्या को जन्म दिया हैं! सप्त-ऋषियों को धिक्कार हैं!
तूने मेरा घर ही जला कर रखा दिया हैं, यह तो मेरा साक्षात्
मरण ही हैं। हिमवान अब मेरे समीप न आयें, सप्त-ऋषि मुझे आज से
अपना मुंह न दिखाए, तूने मेरे कुल का नाश
कर दिया हैं, इससे अच्छा तो यह था की मैं बाँझ ही रह
जाती। मैं आज तेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर, तेरा त्याग करके कही और चली जाऊंगी, मेरा तो जीवन ही नष्ट हो गया हैं।”
ऐसा कहकर मैना पुनः मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी, उस समय सभी देवता उनके निकट गए। पुनः उनकी चेतना वापस
आने पर नारद जी उनसे बोले, “आपको पता नहीं भगवान शिव का स्वरूप बड़ा ही
मनोरम हैं, आपने जो देखा वह उनका यथार्थ रूप नहीं
हैं। आप अपने क्रोध का त्याग कर स्वस्थ हो जाइये तथा पार्वती-शिव के विवाह में अपने
कर्तव्य को पूर्ण करें।” इस पर मैना अधिक क्रोध-युक्त होकर नारद जी से बोलीं! “मुनिराज आप
दुष्ट तथा अधमों के शिरोमणि हैं, आप यहाँ से दूर चले
जाए।” मैना द्वारा इस प्रकार कहने
पर देवराज इंद्र तथा अन्य देवता और दिक्पाल मैना से बोले, “तुम हमारे वचनों को
प्रसन्नता पूर्वक सुनो! भगवान शिव उत्कृष्ट देवता तथा सभी को उत्तम सुख प्रदान करने वाले हैं, आपकी कन्या के तप से प्रसन्न होकर ही उन्होंने पार्वती को उत्तम वर प्रदान
किया हैं। यह सुनकर मैना देवताओं से विलाप कर कहने लगी! “उस शिव का स्वरूप बड़ा
ही डरावना हैं, मैं उसके हाथों में
अपनी कन्या का दान नहीं करूँगी, सभी देवता मेरी कन्या
के उत्कृष्ट स्वरूप को क्यों प्रपंच कर व्यर्थ करने हेतु उद्धत हैं?" तदनंतर, मैना के पास सप्त-ऋषि गण आयें और कहने लगे, “पितरों की कन्या मैना, हम तुम्हारे कार्य सिद्धि हेतु आयें हैं।
जो कार्य उचित हैं, उसे तुम्हारे हठ के
कारण हम विपरीत क्यों मान ले? भगवान शिवदेवताओं
में सर्वोच्च हैं, वे साक्षात दानपात्र
होकर तुम्हारे घर पर आयें हैं।” इसपर मैना को भरी क्रोध हुआ तथा
उन्होंने कहा! “मैं अपनी कन्या के अस्त्र से टुकड़े-टुकड़े कर दूंगी, परन्तु उस शिव के हाथों में अपनी पुत्री को नहीं दूंगी, तुम सब मेरे सामने से चले जाओ और कभी मेरे सामने ना आना।”
पार्वती की माता के हठ त्याग न
करने पर वहां हाहाकार मच गया, तदनंतर हिमवान, मैना के पास आयें और
प्रेमपूर्वक नाना तत्त्वों को दर्शाते हुए उन्हें समझाने लगे। उन्होंने कहा! “तुम
इस प्रकार व्याकुल क्यों हो रही हो? मेरी बातों को ध्यान
पूर्वक सुनो! भगवान शिव के नाना रूपों को तुम भली प्रकार जानती हो, इसपर भी तुम उनकी निंदा क्यों कर रही हो? उनके विकट रूप को देखकर तुम घबरा गई हो, वे ही सबके पालक हैं, अनुग्रह तथा निग्रह
करने वाले हैं, सबके पूजनीय हैं। पहली
बार यहाँ आकर उन्होंने कैसी लीलाएं की थीं, क्या तुम्हें वह सब स्मरण नहीं है?” इसपर मैना ने हिमवान से कहा! “आप अपनी पुत्री के गले में रस्सी बाँध कर, उसे पर्वत से निचे गिरा दीजिये या इसे ले जाकर निर्दयता पूर्वक सागर में
डूबा दीजिये, मैं पार्वती को शिव के हाथों में नहीं दूंगी। यदि आपने
पुत्री का दान विकट रूपधारी शिव को किया तो मैं अपना शरीर त्याग दूंगी।“ मैना के इस प्रकार के वचनों को सुनकर पार्वती स्वयं अपनी माता से
आकर बोलीं, “इस समय आपकी बुद्धि विपरीत कैसे हो गयी
हैं? आपने धर्म का त्याग कैसे कर दिया हैं? रुद्र-देव ही सर्व उत्पत्ति के
कारण-भूत साक्षात् परमेश्वर हैं, इनसे बढ़कर दूसरा कोई
भी नहीं हैं। समस्त श्रुतियां उन्हें ही सुन्दर रूप वाले तथा सुखद मानते हैं, समस्त देवताओं के स्वामी हैं, केवल इनके नाम और रूप अनेक हैं। ब्रह्मा तथा विष्णु भी इनकी सेवा करते हैं, शिव ही सभी के अधिष्ठान, कर्ता, हर्ता तथा स्वामी हैं, सनातन एवं अविनाशी हैं। इनके हेतु ही सभी देवता किंकर
हो आपके द्वार पर उत्सव मना रहें हैं, इससे बढ़कर और क्या हो
सकता हैं? आप सुखपूर्वक उठकर मेरा हाथ उन परमेश्वर
की सेवा में प्रदान करें, मैं स्वयं आपसे यह कह
रहीं हूँ, आप मेरी इतनी सी विनती मान ले। यदि आपने
मुझे इनके हाथों में नहीं दिया तो कभी किसी और वर का वरण नहीं करूँगी। मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा स्वयं शिव का वरन किया हैं, अब आप जैसा उचित समझे करें।” इस पर वे पार्वती पर बहुत क्रोधित हुई
और उन्हें दुर्वचन कहते हुए विलाप करने लगी।
ब्रह्मा तथा सनकादी ऋषियों ने भी उन्हें इस विषय में बहुत समझाया परन्तु वे नहीं
मानी, मैना की हठ की बात सुनकर भगवान श्री विष्णु तुरंत वह आयें तथा
उन्होंने कहा, “तुम पितरों की मानसी
पुत्री हो, साथ ही हिमवान की प्रिय पत्नी हो, तुम्हारा सम्बन्ध साक्षात् ब्रह्मा
जी के कुल से हैं। तुम धर्म की आधार-भूता हो, फिर धर्म का त्याग क्यों कर रहीं हो? तुम भली-प्रकार से सोच-विचार करो! सम्पूर्ण देवता, ऋषि, ब्रह्मा जी तथा स्वयं मैं, हम सभी तुम्हारा क्यों अहित चाहेंगे? क्या तुम शिव को नहीं जानती हो? वे तो सगुन भी हैं और
निर्गुण भी, कुरूप हैं और सुरूप भी। उनके रूप का
वर्णन कौन कर पाया हैं? मैंने तथा ब्रह्मा जी ने भी उनका अंत नहीं
पाया, फिर उन्हें कौन जान सकता हैं? ब्रह्मा से लेकर कीट पर्यंत इस
चराचर जगत में जो भी दिखाई देता हैं, वह सब शिव का ही स्वरूप हैं। वे अपनी लीला से अनेक
रूपों में अवतरित होते हैं, तुम दुःख का त्याग करो
तथा शिव का भजन करो, जिससे तुम्हें महान आनंद की प्राप्ति होगी, तुम्हारा सारा क्लेश मिट जायेगा।” भगवान
पुरुषोत्तम श्री विष्णु द्वारा इस प्रकार
समझाने पर मैना का मन कुछ कोमल हुआ, परन्तु वे शिव को अपनी कन्या का दाना न देने के हठ पर
टिकी रहीं। कुछ क्षण पश्चात, भगवान शिव की माया से मोहित होने पर मैना से श्री हरी से कहा! “यदि वे सुन्दर, मनोरम शरीर धारण कर ले तो मैं अपनी पुत्री का दान
उन्हें कर दूंगी; अन्य किसी उपाय से वे
मोहित नहीं होंगी।”
मैना ने जब यह कहा कि शिव जी यदि सुन्दर
रूप धारण कर लें तो मै अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर दूँगी। इसे सुनकर नारद जी
शिव जी के पास गये और उनसे सुन्दर रूप धारण करने का अनुरोध किया। शिव जी दयालु एवं
भक्तवत्सल हैं ही। उन्होंने नारद के अनुरोध को स्वीकार करके सुन्दर दिव्यरूप धारण
कर लिया। उस समय उनका स्वरूप कामदेव से भी अधिक सुन्दर एवं लावण्यमय था।तब नारद ने
मैना को शिव जी के सुन्दर स्वरूप का दर्शन करने के लिए प्रेरित किया।
मैना ने जब शिव जी के स्वरूप को देखा तो वे आश्चर्यचकित हो गयीं। उस समय शिव जी का शरीर करोड़ों सूर्यों से भी अधिक तेजस्वी और देदीप्यमान था। उनके अंग-प्रत्यंग मे सौन्दर्य की लावण्यमयी छटा विद्यमान थी।उनका शरीर सुन्दर वस्त्रों एवं रत्नाभूषणों से आच्छादित था।उनके मुख पर प्रसन्नता एवं मन्द मुस्कान की छटा सुशोभित थी।उनका शरीर अत्यन्त लावण्यमय ; मनोहर ; गौरवर्ण एवं कान्तिमान था।विष्णु आदि सभी देवता उनकी सेवा मे संलग्न थे।सूर्यदेव उनके ऊपर छत्र ताने खड़े थे।चन्द्रदेव मुकुट बनकर उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रहे थे।गंगा और यमुना सेविकाओं की भाँति चँवर डुला रही थीं।आठों सिद्धियाँ उनके समक्ष नृत्य कर रही थीं।ब्रह्मा ; विष्णु सहित सभी देवता ; ऋषि-मुनि उनके यशोगान मे संलग्न थे।उनका वाहन भी सर्वांग विभूषित था।वस्तुतः उस समय शिव जी की जो शोभा थी ; वह नितान्त अतुलनीय एवं अवर्णनीय थी।उसका वर्णन करना मानव-सामर्थ्य के परे था
शिव जी के ऐसे विलक्षण स्वरूप को देखकर मैना अवाक् सी रह गयीं।वे गहन आनन्दसागर मे निमग्न हो गयीं।कुछ देर बाद प्रसन्नता
पूर्वक बोलीं -- प्रभुवर ! मेरी पुत्री धन्य है।उसके कठोर तप के
प्रभाव से ही मुझे आपका दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।मैने अज्ञानतावश
आपकी निन्दारूपी जो अपराध किया है ; वह अक्षम्य है।परन्तु
आप भक्तवत्सल एवं करुणानिधान हैं।इसलिए मुझ मन्दबुद्धि को क्षमा करने की कृपा
करें। मैना की अहंकार रहित प्रार्थना को सुनकर शिव
जी प्रसन्न हो गये।उसके बाद स्त्रियों ने चन्दन अक्षत से शिव जी का पूजन किया और
उनके ऊपर खीलों की वर्षा की।इस प्रकार के स्वागत-सत्कार को देखकर देवगण भी प्रसन्न हो
गये।
मैना जब शिव जी की आरती करने लगीं तब उनका स्वरूप और अधिक सुन्दर एवं मनभावन हो गया।उस समय उनके शरीर की कान्ति सुन्दर चम्पा के समान अत्यन्त मनोहर थी।उनके मुखारविन्द पर मन्द-मन्द मुस्कान सुशोभित हो रही थी।उनका सम्पूर्ण शरीर रत्नाभूषणों से सुसज्जित था।गले मे मालती की माला तथा मस्तक पर रत्नमय मुकुट धारण करने से उनका मुखमण्डल श्वेत प्रभा से उद्भाषित हो रहा था।अग्नि के समान निर्मल ; सूक्ष्म ; विचित्र एवं बहुमूल्य वस्त्रों के कारण उनके शरीर की शोभा द्विगुणित हो रही थी। उनका मुख करोड़ों चन्द्रमा से भी अधिक आह्लादकारी था। उनका सम्पूर्ण शरीर मनोहर अंगराग से सुशोभित हो रहा था। उन्होंने अपनी विलक्षण प्रभा से सबको आच्छादित कर लिया था।
शिव जी के इस विलक्षण स्वरूप को देखकर मैना रानी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। वे शिव जी के अगाध सौन्दर्यरस का
नेत्रनलिन से पान करती हुई उनकी आरती करने लगीं। वे मन ही मन सोचने लगीं कि आज शिव
जी के इस दुर्लभ स्वरूप का दर्शन करके मै भी धन्य हो गयी। मुझे जीवन भर के पुण्य
प्रताप का सम्पूर्ण फल मिल गया। इस प्रकार आरती करके वे घर के अन्दर चली गयीं।
यह सब देखकर मैना कुछ क्षण के लिए तो चित्र-लिखित सी रह गई तथा उन्होंने भगवान शिव से कहा, “मेरी पुत्री धन्य हैं, जिसके कठोर तप से संतुष्ट हो आप इस घर पर पधारे हैं।
मैंने अपने कुबुद्धि के कारण आपकी जी निंदा की हैं, उसे आप क्षमा कर प्रसन्न हो जायें।” मैना ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान शिव को प्रणाम किया, उस समय मैना के घर में उपस्थित अन्य स्त्रियों ने भी उनके दर्शन
किये तथा सभी चकित रह गए।
मैना ने शिव जी की विधिवत आरती की।इसके बाद द्वारपूजा का कार्यक्रम सम्पन्न
हुआ।द्वारपूजा आदि के बाद बारात जनवासे की ओर चल पड़ी।इधर पार्वती जी अपनी कुलदेवी
का पूजन करने गयीं।उस समय उनका स्वरूप अत्यन्त सुन्दर एवं दर्शनीय था।उनकी
अंगकान्ति नीलाञ्जन सदृश अत्यन्त मनमोहक थी।उनके अंग-प्रत्यंग सौन्दर्य से परिपूर्ण थे।उनका
मुखमण्डल मन्द मुस्कान से सुशोभित था।उनकी दृष्टि अत्यन्त पैनी एवं मनोहारिणी
थी।नेत्रों की आकृति कमल को भी लज्जित कर रही थी।उनकी केशराशि बहुत सुन्दर एवं
हृदयाकर्षक थी।कपोलों पर बनी हुई पत्रभंगी के कारण उनकी शोभा द्विगुणित हो रही
थी।ललाट मे कस्तूरी और सिन्दूर कि बिन्दी अत्यधिक शोभायमान थी।
पार्वती जी का सम्पूर्ण शरीर बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित था।उन्होंने वक्षस्थल पर जो रत्नजटित हार धारण कर रखा था ;उससे दिव्य दीप्ति निःसृत हो रही थी।उनकी भुजाओं मे केयूर ; कंकण ; वलय आदि आभूषण सुशोभित हो रहे थे।उन्होंने कानों मे जो रत्नकुण्डल धारण कर रखा था ; उससे उनके मनोहर कपोलों की रमणीयता और अधिक बढ़ गयी थी।उनकी दन्तपंक्ति मणियों एवं रत्नों की शोभा को भी लज्जित कर रही थी।उनके अधर एवं ओष्ठ सुन्दर बिम्बाफल के समान सुशोभित हो रहे थे।पैरों मे रत्नाभ महावर विराजमान थी।उनके एक हाथ मे रत्नजटित दर्पण और दूसरे हाथ मे क्रीडाकमल सुशोभित हो रहा था।
पार्वती जी के शरीर की शोभा अत्यन्त सुन्दर एवं अवर्णनीय थी।उनके सम्पूर्ण शरीर मे चन्दन ; अगरु ; कस्तूरी और कंकुम का अंगराग सुशोभित था।उनके पैरों की पायजेब मधुर संगीत बिखेर रही थी।उनके इस दिव्य रूप को देखकर सभी देवता भक्तिभाव से नतमस्तक हो गये।भगवान शिव जी ने भी कनखियों के द्वारा पार्वती जी मे सती जी की आकृति का अवलोकन किया ; जिससे उनकी विरह वेदना समाप्त हो गयी।उनके सम्पूर्ण अंग रोमाञ्चित हो उठे।उस समय ऐसा प्रतीत होता था ; मानो गौरी जी शिव जी की आँखों मे समा गयी हों।
इधर पार्वती जी अपने कुलदेवी का पूजन करने लगीं।उनके साथ अनेक ब्राह्मण - पत्नियाँ भी विद्यमान थीं।पूजनोपरान्त सभी लोग हिमालय के राजभवन मे चली गयीं।बाराती भी जनवासे मे जाकर विश्राम करने लगे।
द्वारपूजा के बाद बारात जनवासे वापस
गयी।चढ़ाव का जब समय आया तब विष्णु आदि देवताओं ने वैदिक एवं लौकिक रीति का पालन
करते हुए शिव जी के द्वारा दिये गये आभूषणों से पार्वती जी को अलंकृत किया।धीरे-धीरे कन्यादान की मुहूर्त सन्निकट आ
गयी।वर सहित बारातियों को बुलाया गया।भगवान शिव जी बाजे गाजे के साथ हिमालय के घर
पहुँचे।हिमवान ने श्रद्धा भक्ति के साथ शिव जी को प्रणाम किया और आरती उतारी।फिर
उन्हें रत्नजटित सिंहासन पर बैठाया।आचार्यों ने मधुपर्क आदि क्रियायें सम्पन्न
कीं।फिर पार्वती जी को उचित स्थान पर बैठाकर पुण्याहवाचन आदि किया गया।
अब कन्यादान का समय आ गया। हिमवान के
दाहिनी ओर मैना और सामने पार्वती जी विराजमान हो गयीं। इसी समय हिमवान ने शाखोच्चार के
उद्देश्य से शिव जी से उनका गोत्र ; प्रवर ; शाखा आदि के विषय मे पूछा। शिव जी ने कोई
उत्तर नहीं दिया। तब नारद ने कहा , “ हे पर्वतराज , तुम बहुत भोले हो , तुम्हारा प्रश्न उचित नहीं है . क्योंकि इनके गोत्र ; कुल आदि के बारे मे ब्रह्मा ; विष्णु आदि भी नहीं जानते हैं। दूसरों के
द्वारा जानने का प्रश्न ही नहीं उठता है। ये प्रकृति से परे निर्गुण ; निराकार परब्रह्म परमात्मा और गोत्र ; कुल ; नाम आदि से रहित स्वतन्त्र एवं परम पिता परमेश्वर हैं। परन्तु स्वभाव से
अत्यन्त दयालु और भक्तवत्सल हैं। ये केवल भक्तों का कल्याण करने के लिए ही साकार
रूप धारण करते हैं। इसलिए इनके गोत्र ; प्रवर आदि जानने के
भ्रमजाल मे मत फँसिये।
नारद जी की बातों को सुनकर हिमालय को ज्ञान हो गया।उनके मन का सम्पूर्ण विस्मय नष्ट हो गया।उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक निम्नलिखित मन्त्र बोलते हुए भगवान शिव जी के लिए अपनी कन्या का दान कर दिया
इमां कन्यां तुभ्यमहं ददामि परमेश्वर।
भार्यार्थं परिगृह्णीष्व प्रसीद
सकलेश्वर।।
भगवान शिव जी ने प्रसन्नता पूर्वक वेदमन्त्रों के साथ पार्वती जी के करकमलों को अपने हाथ मे ग्रहण कर लिया। फिर क्या था ; सम्पूर्ण त्रैलोक्य मे जय जयकार का शब्द गूँजने लगा। इसके बाद शैलराज ने शिव जी को कन्यादान की यथोचित सांगता प्रदान की। साथ ही अनेक प्रकार के द्रव्य ; रत्न ; गौ ; अश्व ; गज ; रथ आदि प्रदान किया। इसके बाद विवाह की सम्पूर्ण क्रियायें सम्पन्न की गयीं। मंगलगीत गाये जाने लगे। ज्योनार हुआ। सुन्दरी स्त्रियों ने मीठे स्वरों में गाली गाया। फिर महामुनियों ने वेदों में वर्णित रीति से महादेव जी और जगत्जननी पार्वती जी का विवाह सम्पन्न करा दिया। हिमाचल ने दास, दासी, रथ, घोड़े, हाथी, गौएँ, वस्त्र, मणि आदि अनेक प्रकार की वस्तुओं को अन्न तथा सोने के बर्तनों के साथ दहेज के रूप में गाड़ियों में लदवा दिया।
इस प्रकार विवाह सम्पन्न हो जाने पर शिव जी पार्वती के साथ अपने निवास
कैलाश पर्वत में चले आये। वहाँ शिव पार्वती विविध भोग विलास करते हुए समय व्यतीत
करने लगे।
सती का प्रेम उन्हें पार्वती के रूप में
पुनः इस धरा पर लाकर शिव की अर्धांगिनी बनाकर उनके प्रेम को अमर कर दिया। उनके अमर
प्रेम को प्रणाम !
ॐ नमः शिवाय
नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥
हे विभो, हे
विश्वमूर्ते आपको नमस्कार है, नमस्कार
है। हे सबको आनन्द प्रदान करने वाले सदानन्द आपको नमस्कार है, नमस्कार
है। हे तपोयोग ज्ञान द्वारा प्राप्त्य आपको नमस्कार है, नमस्कार
है। हे वेदज्ञान द्वारा प्राप्त्य (प्रभु) आपको नमस्कार है, नमस्कार
है।
द्वारा - विजय कुमार सप्पत्ति
समाप्त
समाप्त
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बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ... शानदार पोस्ट .... Nice article with awesome depiction!! :) :)
जवाब देंहटाएंॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ।
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