AtmSanyamYog Bhagwat Geeta Chapter 6 | आत्मसंयमयोग ~ अध्याय छः

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अथ षष्ठोऽध्यायः- आत्मसंयमयोग

 

कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ के लक्षण, काम-संकल्प-त्याग का महत्व


श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
śrī bhagavānuvāca
anāśritaḥ karmaphalaṅ kāryaṅ karma karōti yaḥ.
sa saṅnyāsī ca yōgī ca na niragnirna cākriyaḥ৷৷6.1৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है॥1॥

भगवत गीता के सभी अध्यायों को पढ़ें: 

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
yaṅ saṅnyāsamiti prāhuryōgaṅ taṅ viddhi pāṇḍava.
na hyasaṅnyastasaṅkalpō yōgī bhavati kaścana৷৷6.2৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता॥2॥
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
ārurukṣōrmunēryōgaṅ karma kāraṇamucyatē.
yōgārūḍhasya tasyaiva śamaḥ kāraṇamucyatē৷৷6.3৷৷
भावार्थ : योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है॥3॥
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥
yadā hi nēndriyārthēṣu na karmasvanuṣajjatē.
sarvasaṅkalpasaṅnyāsī yōgārūḍhastadōcyatē৷৷6.4৷৷
भावार्थ : जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है॥4॥
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
uddharēdātmanā৷৷tmānaṅ nātmānamavasādayēt.
ātmaiva hyātmanō bandhurātmaiva ripurātmanaḥ৷৷6.5৷৷
भावार्थ : अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है॥5॥
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥
bandhurātmā৷৷tmanastasya yēnātmaivātmanā jitaḥ.
anātmanastu śatrutvē vartētātmaiva śatruvat৷৷6.6৷৷
भावार्थ : जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है॥6॥
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥
jitātmanaḥ praśāntasya paramātmā samāhitaḥ.
śītōṣṇasukhaduḥkhēṣu tathā mānāpamānayōḥ৷৷6.7৷৷
भावार्थ : सरदी-गरमी और सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक्‌ प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं॥7॥
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥
jñānavijñānatṛptātmā kūṭasthō vijitēndriyaḥ.
yukta ityucyatē yōgī samalōṣṭāśmakāñcanaḥ৷৷6.8৷৷
भावार्थ : जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है॥8॥
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥
suhṛnmitrāryudāsīnamadhyasthadvēṣyabandhuṣu.
sādhuṣvapi ca pāpēṣu samabuddhirviśiṣyatē৷৷6.9৷৷
भावार्थ : सुहृद् (स्वार्थ रहित सबका हित करने वाला), मित्र, वैरी, उदासीन (पक्षपातरहित), मध्यस्थ (दोनों ओर की भलाई चाहने वाला), द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है॥9॥
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥
yōgī yuñjīta satatamātmānaṅ rahasi sthitaḥ.
ēkākī yatacittātmā nirāśīraparigrahaḥ৷৷6.10৷৷
भावार्थ : मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए॥10॥
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌ ॥
śucau dēśē pratiṣṭhāpya sthiramāsanamātmanaḥ.
nātyucchritaṅ nātinīcaṅ cailājinakuśōttaram৷৷6.11৷৷
भावार्थ : शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके॥11॥
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥
tatraikāgraṅ manaḥ kṛtvā yatacittēndriyakriyaḥ.
upaviśyāsanē yuñjyādyōgamātmaviśuddhayē৷৷6.12৷৷
भावार्थ : उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे॥12॥
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ॥
samaṅ kāyaśirōgrīvaṅ dhārayannacalaṅ sthiraḥ.
saṅprēkṣya nāsikāgraṅ svaṅ diśaścānavalōkayan৷৷6.13৷৷
भावार्थ : काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ॥13॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥
praśāntātmā vigatabhīrbrahmacārivratē sthitaḥ.
manaḥ saṅyamya maccittō yukta āsīta matparaḥ৷৷6.14৷৷
भावार्थ : ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शांत अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होए॥14॥
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥
yuñjannēvaṅ sadā৷৷tmānaṅ yōgī niyatamānasaḥ.
śāntiṅ nirvāṇaparamāṅ matsaṅsthāmadhigacchati৷৷6.15৷৷
भावार्थ : वश में किए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है॥15॥
विस्तार से ध्यान योग का विषय

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
nātyaśnatastu yōgō.sti na caikāntamanaśnataḥ.
na cātisvapnaśīlasya jāgratō naiva cārjuna৷৷6.16৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है॥16॥
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
yuktāhāravihārasya yuktacēṣṭasya karmasu.
yuktasvapnāvabōdhasya yōgō bhavati duḥkhahā৷৷6.17৷৷
भावार्थ : दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है॥17॥
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥
yadā viniyataṅ cittamātmanyēvāvatiṣṭhatē.
niḥspṛhaḥ sarvakāmēbhyō yukta ityucyatē tadā৷৷6.18৷৷
भावार्थ : अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है॥18॥
यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
yathā dīpō nivātasthō nēṅgatē sōpamā smṛtā.
yōginō yatacittasya yuñjatō yōgamātmanaḥ৷৷6.19৷৷
भावार्थ : जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है॥19॥
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
yatrōparamatē cittaṅ niruddhaṅ yōgasēvayā.
yatra caivātmanā৷৷tmānaṅ paśyannātmani tuṣyati৷৷6.20৷৷
भावार्थ : योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है॥20॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥
sukhamātyantikaṅ yattadbuddhigrāhyamatīndriyam.
vētti yatra na caivāyaṅ sthitaścalati tattvataḥ৷৷6.21৷৷
भावार्थ : इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं॥21॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
yaṅ labdhvā cāparaṅ lābhaṅ manyatē nādhikaṅ tataḥ.
yasminsthitō na duḥkhēna guruṇāpi vicālyatē৷৷6.22৷৷
भावार्थ : परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता॥22॥
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥
taṅ vidyād duḥkhasaṅyōgaviyōgaṅ yōgasaṅjñitam.
sa niścayēna yōktavyō yōgō.nirviṇṇacētasā৷৷6.23৷৷
भावार्थ : जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है॥23॥
सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥
saṅkalpaprabhavānkāmāṅstyaktvā sarvānaśēṣataḥ.
manasaivēndriyagrāmaṅ viniyamya samantataḥ৷৷6.24৷৷
भावार्थ : संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर॥24॥
शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ॥
śanaiḥ śanairuparamēd buddhyā dhṛtigṛhītayā.
ātmasaṅsthaṅ manaḥ kṛtvā na kiñcidapi cintayēt৷৷6.25৷৷
भावार्थ : क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे॥25॥
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥
yatō yatō niścarati manaścañcalamasthiram.
tatastatō niyamyaitadātmanyēva vaśaṅ nayēt৷৷6.26৷৷
भावार्थ : यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे॥26॥
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ॥
praśāntamanasaṅ hyēnaṅ yōginaṅ sukhamuttamam.
upaiti śāntarajasaṅ brahmabhūtamakalmaṣam৷৷6.27৷৷
भावार्थ : क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है॥27॥
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥
yuñjannēvaṅ sadā৷৷tmānaṅ yōgī vigatakalmaṣaḥ.
sukhēna brahmasaṅsparśamatyantaṅ sukhamaśnutē৷৷6.28৷৷
भावार्थ : वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है॥28॥
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥
sarvabhūtasthamātmānaṅ sarvabhūtāni cātmani.
īkṣatē yōgayuktātmā sarvatra samadarśanaḥ৷৷6.29৷৷
भावार्थ : सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है॥29॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
yō māṅ paśyati sarvatra sarvaṅ ca mayi paśyati.
tasyāhaṅ na praṇaśyāmi sa ca mē na praṇaśyati৷৷6.30৷৷
भावार्थ : जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत (गीता अध्याय 9 श्लोक 6 में देखना चाहिए।) देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता॥30॥
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥
sarvabhūtasthitaṅ yō māṅ bhajatyēkatvamāsthitaḥ.
sarvathā vartamānō.pi sa yōgī mayi vartatē৷৷6.31৷৷
भावार्थ : जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है॥31॥
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
ātmaupamyēna sarvatra samaṅ paśyati yō.rjuna.
sukhaṅ vā yadi vā duḥkhaṅ saḥ yōgī paramō mataḥ৷৷6.32৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति (जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ, पैर और गुदादि के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकों का-सा बर्ताव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थात अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में देखना 'अपनी भाँति' सम देखना है।) सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है॥32॥

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥
arjuna uvāca
yō.yaṅ yōgastvayā prōktaḥ sāmyēna madhusūdana.
ētasyāhaṅ na paśyāmi cañcalatvāt sthitiṅ sthirām৷৷6.33৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ॥33॥
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥
cañcalaṅ hi manaḥ kṛṣṇa pramāthi balavaddṛḍham.
tasyāhaṅ nigrahaṅ manyē vāyōriva suduṣkaram৷৷6.34৷৷
भावार्थ : क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ॥34॥

श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
śrī bhagavānuvāca
asaṅśayaṅ mahābāhō manō durnigrahaṅ calaṅ.
abhyāsēna tu kauntēya vairāgyēṇa ca gṛhyatē৷৷6.35৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।) और वैराग्य से वश में होता है॥35॥
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
asaṅyatātmanā yōgō duṣprāpa iti mē matiḥ.
vaśyātmanā tu yatatā śakyō.vāptumupāyataḥ৷৷6.36৷৷
भावार्थ : जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है॥36॥

अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥
arjuna uvāca
ayatiḥ śraddhayōpētō yōgāccalitamānasaḥ.
aprāpya yōgasaṅsiddhiṅ kāṅ gatiṅ kṛṣṇa gacchati৷৷6.37৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है॥37॥
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥
kaccinnōbhayavibhraṣṭaśchinnābhramiva naśyati.
apratiṣṭhō mahābāhō vimūḍhō brahmaṇaḥ pathi৷৷6.38৷৷
भावार्थ : हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?॥38॥
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥
ētanmē saṅśayaṅ kṛṣṇa chēttumarhasyaśēṣataḥ.
tvadanyaḥ saṅśayasyāsya chēttā na hyupapadyatē৷৷6.39৷৷
भावार्थ : हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है॥39॥
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥
śrī bhagavānuvāca
pārtha naivēha nāmutra vināśastasya vidyatē.
nahi kalyāṇakṛtkaśicaddurgatiṅ tāta gacchati৷৷6.40৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता॥40॥
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥
prāpya puṇyakṛtāṅ lōkānuṣitvā śāśvatīḥ samāḥ.
śucīnāṅ śrīmatāṅ gēhē yōgabhraṣṭō.bhijāyatē৷৷6.41৷৷
भावार्थ : योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है॥41॥
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ॥
athavā yōgināmēva kulē bhavati dhīmatām.
ētaddhi durlabhataraṅ lōkē janma yadīdṛśam৷৷6.42৷৷
भावार्थ : अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जो यह जन्म है, सो संसार में निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है॥42॥
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥
tatra taṅ buddhisaṅyōgaṅ labhatē paurvadēhikam.
yatatē ca tatō bhūyaḥ saṅsiddhau kurunandana৷৷6.43৷৷
भावार्थ : वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात समबुद्धिरूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है॥43॥
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥
pūrvābhyāsēna tēnaiva hriyatē hyavaśō.pi saḥ.
jijñāsurapi yōgasya śabdabrahmātivartatē৷৷6.44৷৷
भावार्थ : वह (यहाँ 'वह' शब्द से श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पुरुष समझना चाहिए।) श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है॥44॥
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ॥
prayatnādyatamānastu yōgī saṅśuddhakilbiṣaḥ.
anēkajanmasaṅsiddhastatō yāti parāṅ gatim৷৷6.45৷৷
भावार्थ : परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है॥45॥
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥
tapasvibhyō.dhikō yōgī jñānibhyō.pi matō.dhikaḥ.
karmibhyaścādhikō yōgī tasmādyōgī bhavārjuna৷৷6.46৷৷
भावार्थ : योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इससे हे अर्जुन! तू योगी हो॥46॥
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥
yōgināmapi sarvēṣāṅ madgatēnāntarātmanā.
śraddhāvānbhajatē yō māṅ sa mē yuktatamō mataḥ৷৷6.47৷৷
भावार्थ : सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है॥47॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥6॥
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